गीता - प्रबंध भाग 2 | Gita Prabandh Bhag-2

Gita Prabandh Bhag-2 by श्री अरविन्द - Shri Arvind

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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दो प्रकृतियां ९ पहले भगवान श्रीकृष्ण कहते है कि यह दूसरी प्रकृति मेरी परा कृति हैं, घ्रकृति में पराम'। और यहा यह जो 'में' है. यह परुपोत्तम अर्थात परम पृसय, परमात्मा, विथ्वातीत भर विश्व व्यापी आत्माका वाचक है। परमात्माकी मूल सनातन प्रकृति और उसकी परातरा मूल कारण-धक्ति ही परा प्रकृतिसे अभिन्रेत है।. कारण अपनी प्रकृतिकी कर्तुगस्तिकी दृप्टिसि जगदुत्पत्तिकी चात कहते हुए भगवानूवा यह स्पप्ट वचन है कि, “यह सब अआणियोंकी योनि है”--एतद्योनीनि भूतानि। इसी ब्लोकके फिर दूसरे चरणमें उसी वातकों प्रसवित्ता आत्माकी दृप्टिसे कहते है, में ही संपूर्ण जगतूका प्रमव और प्रलय हु; मेरे परे और कुछ भी नहीं है।” यहां इस तरह परम पुरुष पुसुपीत्तम आर परा अछृति एकीभूत है; एक ही सतत्त्वकी ओर देखनेके दो प्रकारोंके सतौरपर ये यहां रखे गये हैं। कारण, जब श्रीकृष्ण कहत हू कि इस जगतका प्रभव और प्रलय में हू तत्र यह स्पष्ट है कि इसका मत खूब परा प्रद्ति अर्थात उनके स्व-भावसे है जो यह प्रभव और लय दोनों ही चीजें हैं। परमात्मा अपने अनत चिदुघन स्व- रूपसे परम पुरुष है और परा प्रकृति उनका स्वभावगत अनंत शाव्ति या संकल्प है--यदह अनंत चिदुघन-स्वरूप ही हैं अपनी स्विंग-स्थित भागवत णवित और परम भागवत कमक साथ | म्भव परमात्मामेसे इसी चिच्छक्तिका आविभूंत होना हू, परा 'प्रकृतिर्जीवभता, क्षर जगत्‌में उसकी यह प्रकृति है; प्रलय पर- मात्माकी अक्षर सत्ता और स्वात्मलीन बाक्तिके अदर इस चिच्छ- 'क्तिका अंतर्भाव होनेसे कर्मकी निवृत्ति हू। परा प्रकृतिसे यही सूल अभिषराय है।




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