संस्कृत - नाटक | Sanskrit Natak (udbhav Aur Vikas Siddhant Aur Prayog)

Sanskrit Natak (udbhav Aur Vikas Siddhant Aur Prayog) by आर्थर बेर्रिएदाले कैथ - Arthur Berriedale Keith

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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च् संस्कृत-नाटक जान पड़ते हैं) स्पष्ट विवरण दिया हैं । जहाँ अनिवाय नहीं है वहाँ भी उसका हस्तक्षेप संदेह की वस्तु है । यह वात स्पप्ट है कि कल्प-साहित्य को यह नात नहीं था कि ऋग्वेद के संवादों का क्या किया जाए । रचना की यह दौली पिछले वैदिक काल में लुप्त हो गयी । यह अर्थ पूर्ण है कि अयर्ववेद में इस प्रकार का केवल एक सुक्त (५1११) है, जिसमें ऋत्विज प्राप्य गौ के लिए अयर्वा देवता से प्रार्थना करता है; देवता उसकी प्राथना स्वीकार करने को अनुग्रहशील नहीं है, लेकिन अंत में अनुनय से द्रवीभूत होकर प्राप्य पारितोपिक के साथ ही दायवत मैत्री का वचन देता है । गतएव यह वात तनिक भी भाइचर्यजनक नहीं है कि ई० पु० पाँचवीं दाती में हम यास्क और दौनक को इस विपय में मतभेद रखते हुए पाते है कि सुक्त १०1९५ संवाद है, (जैसा कि पहले ने माना है) अथवा उपाख्यान मात्र (जैसा कि दूसरे ने समझा है) । सायण-भाष्य से हमें पता चलता है कि परंपरा लगभग सभी सुक्‍तों का कर्मकांड-संवंबी प्रयोग बताने में असमर्थ रही । १०1८६ की स्थिति अपवाद है, परंतु यह बात ध्यान देने योग्य है कि उस सुक्‍त में यथार्थ संवाद का तत्त्व नगण्य है । उसके तीनों वक्ता वार्तालाप न करके पहेलियाँ-सी वुआते हैं । भतएव, उत्तरकाठीन कर्मक्रांड में इसको जो नगण्य स्थान मिला है उसमें इसको विठा देना सरल था । अतएव, हमें मानना पड़ेगा कि इन संतादों में उस काव्य-दैली के अवशेप मिलते हैं जो पिछले वैदिक काल में प्रचलित नहीं रही । इसका मूल उद्देश्य अस्पप्ट है, परंतु सन्‌ १८६९ ई० में मंदसमूलर ने ऋग्वेद १1१६५ के विवरण के प्रसंग में एक वहुत ही रोचक सुझाव प्रस्तुत किया था ।* उनका अनुमान है कि “मढतों की आरावना में किये गये यन्नों के अवसर पर इस संवाद का पाठ होता था अथवा संभवत: दो दलों द्वारा इसका अभिनय किया जाता था, एक दल इंद्र का प्रतिरूपण करता थ्रा और दूसरा मद्तों एवं उनके अनुवाधियों का' । १८९० ई० में इस सुझाव को प्रोफ़ेसर लेवी ( 1८८४ ) ने अनुमोदन के साथ दोहराया ।' उन्होंने एक और तर्क यह दिया है कि सामवेद से सूचित होता है कि वैदिक युग तक संगीत-कला का पूर्ण विकास हो चुका था | गौर, इसके पहले ही ऋग्वेद से ज्ञात होता है कि शोभन-व्रेण-भूपित वालाएँ नाचती तथा प्रेमियों को भाकर्पित करती थीं । अयर्ववेद” से पता चलता है कि पुरुप किस प्रकार वाद्य की गत पर नाचते गौर गाते थे । इसलिए तर्क-वुद्धि से १. अंद्ट, एॉंट 5बट्टटाडध०रिट ठंटड पट्टए्ट्तेव, ए- द7- २. 585, भस्यीं, उठ ही ३, उ. उ. 307 ् हु ', उ. 92. थू- ५, सी व दूप




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