वेदों का तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन भाग 1 | Vedon Ka Tulnatmak Aur Sameekshatmak Adhyayan Vol.-i

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरे पिताजी 15 साधक रुप । वे सुबह दो घंटे पूजा किया करते थे 1 नहा-घोकर लाल रेशमी यश्य पहनकर पूजा के ग्रासन पर बैठे हुए उनका रूप ही मेरे मानस में एक प्रतर विम्व के रुप में अ्रंकित है । मुझे याद है एक दिन सुबह किसी श्रावइ्यक कार्य से उस समय दिल्‍ली विववविद्यालय के कुलपति डॉ० सी. डी. देशमुख उनसे मिलने शाये थे । फ्ताजी ने कदलवा दिया, श्रव मैं मिल नहीं सकता । यह कोई दंभ नहीं था । व्यक्तित्व को एक ऐसी दशर्क्ति थी जो अव्यात्म के साथ जोवन को वास्तविकता को मिलाना नहीं चाहती थी 1 वहाँ वे जीवन के वारे में उदास्लीन हो जाते थे । कदाचितु प्राज की इबष्टि में यह व्यावहारिकता नहीं थी मगर उनकों इसकी कोई परवाह नहीं थी । मैंचे जब से उन्हें समभना शुरू किया है तभी से जाना कि वे इस जगत्‌ के भादमी नद्दीं हैं । जीवन को जो जीता है उसके इर्द-गिंदं काँठे तो होंगे ही- शत्रुता तो लोग करेंगे ही मगर हमारे घर में यह कठोर नियम था कि किसी के विरोध में एक धब्द भी नहीं कहना है । उन्होंने कठिनतम परिस्थिति को कभी 'चुदौती नहीं माना, कमंण्यता को साहस नहीं मगर सबको ईश्वरेच्छा छूटकर एक दशक की तरह जीवन की घार को वबहते देखा है इसीलिए चुनौती, कमंण्यठा, साहस, संघर्ष उनके लिए बड़ी वात नहीं थी--ईदवर के द्वारा दिए गए जीवन को ईददर को ही समपिंत करके तटस्थ होकर उसे जीग्रो उनको घारणा थी । कर्म ही जीवन का म्रंत नहीं -' इसको पार कर जाना है -मगर ऐसा कर सकें तो पता चलेगा कि ईदवर ही वस्तु है श्रौर बाकी सब श्रवस्तु है -ईच्वर प्राप्ति हो उनके जीवन का उद्देदय रहा ही न हे हे । इसका श्ररये यह नहीं कि कम में उनकी श्रनासविति थी, जीवस के प्रति एक विवेकहीन दृष्टि थी या वे उत्साइहीन व्यक्ति थे । दरश्रसल उनमें ए हद ट ्ज निः्स्वार्थपरत्ता थो । विर्वविद्यालय में वे कुछ समय के लिए हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, वंगला श्रादि त्मो मापाओओं से सम्बद्ध एक विभाग के श्रव्यक्ष थे । फिर अपनी कोदिश से उन्होंने हिन्दी, उदूं के श्रलग विभाग वनवाए श्रोर फिर झयक प्रयत्न करके श्रायुिक मारतीय भाषाओं के एक अलग विभाग को स्यापना करवाई । श्रव्ययन-भध्यापन के कार्य में तो वे ऐसे जुटे रहते थे पढ़ने भ्राये तो सख्त हिदायत थी कि कोई रेडियो नहीं विद्यार्थी परोंक्षा हे पहले नियमित पढ़ने शभ्राया करते थे मेरी मां को श्रादंश था कि उन्हें दूघ दिया जाए श्रौर जव मे थीं तो कहते थे वे एम० ए० का इम्तहान तो नहीं के रह सकते हैं। उस समय दिद्यार्थी मी तो कुछ दुसरे हो टंग के ही होते थे । पिताजी के व्यक्तित्व का जो दूसरा विस्व मेरे मानस में उभरता है कि वे




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