वेदों का तुलनात्मक और समीक्षात्मक अध्ययन भाग 1 | Vedon Ka Tulnatmak Aur Sameekshatmak Adhyayan Vol.-i

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Vedon Ka Tulnatmak Aur Sameekshatmak Adhyayan Vol.-i by डॉ. रघुवीर वेदालंकार - Dr. Raghuveer Vedalankar

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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मेरे पिताजी 15 साधक रूप | वे सुवह्‌ दो घंटे धुजा किया करते ये 1 नहा-घोकर लाल रेशमी वस्य पहनकर पूजा के श्रासन पर बैठे हुए उनका रूप ही मेरे मानस में एक प्रखर विम्व॒ के रुप में अंकित है । मुझे याद है एक दिन सुबह किसी आवश्यक कार्य से उस उसमय दिल्‍ली विश्वविद्यालय के कुलपति डॉ० सी. डी. देशमुख उनसे मिलने भाये थे । पिताजी ने कहलवा दिया, श्रव में मिल नहीं सकता | यह कोई दंग नहीं था । व्यक्तित्व की एक ऐसी शक्ति थी जो अध्यात्म के साथ जीवन की वास्तविकता को मिलाना नहीं चाहती थी । वहां वे जीवन के बारे में उदासीन हो जाते थे । कदाचित्‌ आज की इष्टि ने यह व्यावहारिकता नहीं थी मगर उनको इसकी कोई परवाह नहीं थी । मैंते जब से उन्हें समझना शुरू किया है तमी से जाता कि वे इस जगत्‌ के भादमी नहीं हैं। जीवन को जो जीता है उसके इर्द-गिर्द काँठे तो होंगे ही- झत्रुता तो लोग करेंगे ही मगर हमारे घर में यह कठोर नियम था कि किसी के विरोध में एक घब्द भी नहीं कहना है । उन्होंने कठिनतम परिस्थिति को कभी घुनौती नहीं माना, कर्मण्यता को साहस नहीं मगर सबको ईइवरेच्छा फहकर एक दर्शक की तरह जीवन की घार को बहते देखा है इसीलिए चुनौती, कमंप्यता, साहस, संघर्ष उनके लिए बड़ी बात नहीं थी--ईइवर के द्वारा दिए गए जीवन को ईदवर को ही समपित करके লতজ্ৰ होकर उसे जीग्रो उनकी धारणा थी । कर्म ही जीवन का अंत नहीं --इसको पार कर जाना है -- मगर ऐसा कर सके तो पता चलेगा कि ईइवर ही वस्तु है भौर बाकी सब भ्रवस्तु है--ईइ्वर प्राप्ति ही उनके जीवन का उद्देश्य रहा = ৪ নি = है । इसका श्रर्थ यह नही कि कम में उनकी अ्नासवित थी, जीवन के प्रति एक विवेकहीन दृध्टि थी या वे उत्ताहहीत व्यक्ति थे। दरअश्रतल उनमें ए द्‌ ट्‌ (व निःस्वार्यपरता थो। विश्वविद्यालय में वे कुछ समय के लिए हिन्दी, उर्दू, संस्कृत, वंगला श्रादि समी भाषाओं से सम्बद्ध एक विभाव के अ्रव्यक्ष थे । फिर अपनी कोशिश से उन्होंने हिन्दी, उर्दू के श्रलग विभाग बनवाए झ्लोर फिर भ्रयक प्रयत्न करके आ्ावुनिक भारतीय भाषाओं के एक भलग विभाग की स्थापना करवाई । अ्रव्ययन-भध्यापन के कार्य में तो वे ऐसे जुटे रहते ये पढ़ने भाये तो सतत हिदायत थी कि कोई रेडियो नहं विद्यार्यी परोक्षा से पहले दियमित पढ़ने श्राथा करते थे मेरी मां को प्रादेश था कि उन्हें दूध दिया जाए और जब म ঘী तो कहते थे वे एम० ए० का इम्तहान तो नहीं के रह सकते हैं। उस समय विद्यार्थी मी तो कुछ दूसरे ही ढंग के ही होते थे 1 पिताजी के व्यक्तित्व का जो दूसरा विम्ब मेरे मानस में उमरता है किये




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