सुमित्रानंदन पंत ग्रंथावली खंड 6 | Sumitranandan Pant Granthavali Part - Vi

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Sumitranandan Pant Granthavali Part - Vi by शांति जोशी - Shanti Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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पर उसने भ्रपने को मोर के पर लगाये हुए कौए की तरह शौर भी दयनीय कुरूप एवं निकस्मा पाया झ्रपने साई की गरीब मुहस्थी से पास-पड़ोस से दहर से भ्नौर खुद श्रपने से उसे घृणा होने लगी वह श्रौर भी चिड़घिड़ा दुराप्रही हृठी निन्दक श्रात्म-घातक श्रौर परद्रोही हो गया । उसके घनी मित्रो ने भी जिनके साथ रहकर उसे श्रसेक प्रकार की कुटेबें प्रो बुरी भ्रादतें पड़ गयी थी उसकी ऐसी दशा देखकर उसका साथ छोड़ दिया । बहु न घर का रह गया ने घाट का । चाय पान सिगरेट के लिए सुस्वादु भोजन के लिए श्रव उसका जी तरसने लगा । सिनेमा थियेटर उसे प्रौर भी जोर से म्रपनी श्रोर सीचने लगे । लाचार हो ध्रपने से तंग श्राकर उसने श्रपने गरीब भाई की जेब पर हाथ साफ करना शुरू किया । भाई उससे पहले से ही रुप्ट था भ्रब उसका ऐसा पतन देखकर उसने उसका धर में श्राना बन्द कर दिया । सब तरह से मिराश हो श्रपमान भय लज्जा क्षोभ यातना श्रात्म- सम्मान दारुण भुख-प्यात से एक साथ ही प्रस्त पीड़ित क्लान्त एवं पराजित हो अन्त में पीताम्बर में एक तम्बोली की दुकान में पान लगाने की नौकरी कर ली पर वहाँ भी वह अधिक समय तक न ठट्टर सका । उसकी कुटेवें उसका दुर्भाग्य बन गयी थी । श्रौर एक रोज दूकान पर पान खाने को भ्रायी हुई एक वेदया के रूप-सम्मोहन के तीर से बुरी तरह घायल हो उसने शाम के वक्‍त चुपचाप गत्ले की स्द्रकची से पाँच रुपये का नोट चुराकर भ्रपनी विपत्ति-निक्षा की कालिमा को एक रात के कलंक से श्नौर भी कलुपित कर डाला । उसका स्वास्थ्य झ्रभी खराब नहीं हुमा था । उसके श्रविवाहित जीवन सबल इत्द्रियों की स्वस्थ प्रेरणास्रों का समाज श्रथवा संसार कया मूल्य श्रौंक सकता था कया सदुपयोग कर सकता था ? फूल की मिलनेच्छा सुगन्घ कही जाती है मनुष्य की प्रणयेच्छा दुर्गन्घ उसे नि्म॑ल समीर वाहित करता है इसे कलुपित लोकापवाद । नर- पुष्प के वीयें॑ को गीत गाता हुमा भौरा नृत्य करता हुभ्ना मलयानिल स्त्री- पुष्प के गर्म में पहुँचा ग्राता है मनुष्य का वी्य॑ वैवाहिक स्वेच्छाचार की श्रन्घी कोठरियों पाधविक वेद्याचार की गन्दी नालियों में सहस्न प्रकार के गहित नौरस कृत्रिम मेथुनों द्वारा छिपे-छिपे प्रवाहित होता है । यह इसलिए कि हम सम्य हैं मनुष्य के मूल्य को जीवन की पवित्नता को समझ सकते हूँ । श्रसंख्य जीवों से परिपूर्ण यह सृष्टि एक ही अमर दिव्य शक्ति की श्रभिव्यक्ति है प्रकृति के सभी कार्य पुनीत हैं मनुष्य-मात्र की एक ही भ्रात्मा है-- हम ऐसे-ऐसे दाशेनिक सत्यों के ज्ञाता एवं बिधाता हैं हम प्रकाशवादी हैं खेर दूर्कांन का मालिक पीताम्बर को पुलिस के हवाले करने जा रहा था उसके बढ़ भाई ने बीच-बचाव कर हाय जोड़कर गिडणिड़ाकर तम्वोली के रुपये भर दिये भ्ौर पीताम्बर को घिक्कारकर उस पर गालियों की बौछार कर श्रन्त मे लोगो के समभकाने पर तरस खाकर उसके लिए निजी पान की दूकान खोल दी । तभी से हमारे कथानायक इस दूकान की गददी पर बेठकर पानवाले की उपाधि से विमूपित हुए । प्रवद्य ही वह कोई शुभ मुहूर्त रहा होगा कि उस पानवाले की गदृदी अभी तक बनी हुई है भले ही वह नाम-मात्र को हो । पाँच कहानियाँ / ७




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