वैदिक - सर्प - विद्या | Vaidik - Sarp - Vidhya
श्रेणी : मनोवैज्ञानिक / Psychological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
2.27 MB
कुल पष्ठ :
76
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about श्रीपाद दामोदर सातवळेकर - Shripad Damodar Satwalekar
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)( र५ )
'कितना अधिक विचार होने की आवश्यकता है । अस्तु । अब से
जातियोंका विचार इतनाही छिखकर अन्य विचार करता हूँ--
(४) सर्पीकी उत्पत्ति और इृद्धि ।
सर्प “ अंढ-ज ” प्राणी हैं, अथोत् इनकी उतत्ति अंडों में
से होती है । सनातीय ख्रीपुरुष सर्पेकि शरीरसंबंधसे सजातीय
सर्प उत्पन्न होते हैं, तथा इनमें व्यभिचार और स्वयंवर की
प्रथा हेनेसे विजातीय खा सर्पिणीके साथभी इनका
दाशिरसंत्रंघ होता है, और इससे वणेसकर होकर अनेक संकर
जातियां उत्पच् होतीं हैं 11 ! इसी छिये महामारतके आस्तिक परे
अ० ३५ में कहा है कि उक्त कारणसे इनकी जातियोंकी गिनती
करना अत्यंत कठिन काम है ।
नागखी वर्षेमें एकवार अंडे देती है, और प्रतिप्रमय १५ से
२० तक थे देती है। अंडे सफेद रंगकें होते हैं और कबूतरके
उडेके समान बढ़े हेति हैं । अंडे ख़्य सुये की उष्णतासे परिपक्त
होते हैं और बच्चे यथासमय बाहिर आते हैं ।: वाहिर आते ही
मध्य प्राप्त करनेके छिये इधर उधर श्रमण करने ठगते हैं । यद्यपि
नाग का बच्चा बढाही सुंदर दिखाई देता है, तथापि उसके कभी
हाथ नहीं गाना चाहिये, क्योंकि एक दिनकी आयुका नागका
बच्चा मी काटेगा तो मनष्य मर सकता है, इतना तीन्र विप उसमें
होता है । इस छिये नागका बचा नहां दिखाई देगा वहां ही उसको
मत्यके हवाढ़े करना चाहिये, तथा उसके भाई बंधु नो वहाँही
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