कागज की नाव | Kagaj Ki Nav

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Kagaj Ki Nav by श्री प्रताप चन्द्र आजाद - Shri Pratap Chandra Ajad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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से एक सजीव प्रकार की गुदसुदी उठते लेगी । सात दिन किस बेचैनी श्रौर विवद्चता से व्यतीत होगे । उसे वार चार यही बिचार परेगा न कर रहा था | उसने अपने मित्र से एरामर्न किया कि वुढ़िया का नि्सय फ़िस प्रकार उसके पक्ष से हो इसकी भी पमोजना बनानी चाहिये । म्राखिर उसका मिन्न तो हरफसमसौंना था ही, कुछ देर सोचकर उसने बुटकी वजाकर दामोदर दास का ध्यान अपनी आर सार्कापित करने हुये कहा । “सुतिये दानोदर दास जी ! मेरी समभक से एक तिकडस आ गई ।” “झरे भाई तुम तो फिकडमों के ही बादलाह हो. फिर क्यो ने तुमने कोई तिकड्म की अच्छी थोजता बनाई होगी ।' “बहुत अच्छी यॉजना है ।'' “क्या हैं बताइये भी नो ।'' “मुो भाई दामोदर दास जी । इस नगर में कुण्टों नाम की एक कुदनी रहती है । वहू बड़े दे लोयों को भ्रपने जाल में फास चुकी है ।” “लेकिन वह तो म्रपते लिये लोगों को फासती होगी न कि दूसरों के लिये ८” “नहीं लाला दामोदर दास 1 कुण्ठों का यही तो कमाल हैं कि उसको मुँह मागा पैसा दीजिये घ्ौर बड़े से वडा काम अपने लिये करा लीजिये ।” “मैं तुम्हारा मतलब नहीं समझा । बह कुटनी हमारी क्या सहायता कर सकती है 'दामोदर दास जी यही तो समझने की बात हैं “समकाइये ४' “बह यह, कि मैं उस कुटनी को कहूँगा कि वह सजधज कर बुदिया के पास जाय, और श्रपने झापकों बडे साहुकार की सती जाहिर करे, श्रौर बुदिया से यह कहें कि वह अपनी लड़नी का विवाह दामोदर दास से करना चाहती हैं क्योंकि दामोदर दास एक बहुत बड़ा आदमी है । सोथ ही दह यह भी कहे कि उसने सुना है कि निर्मला के विवाह की वात भी दामोदर दास से चल रही है.




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