श्रीभाश्ह्या वॉल्यूम 1 | Shriibhaashhya Vol.1
श्रेणी : मनोवैज्ञानिक / Psychological
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
36.82 MB
कुल पष्ठ :
706
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)डे
कोई अधिकार नहीं है । यदि कोई भी थात वेदों में प्रत्यक्ष या अनुमान प्रमाण के
तिपरीत प्रतीत होती है तो. उसमें मनुष्य की समभक की ही कर्मी है उनकी कोई
त्रुटि नहीं है । उन समस्या ओं को मीमांसा शारत्र ने सुलकाया है । वेदों मे प्रतीत
होने वाले विरोध।मास का वास्तविक श्रमिप्राय मीमासा शास्त्र से ही जात होता
है, में अपने आम की निवत्ति के लिए इसी के सहारे की आवश्यकता है । वेद के
श्रन्तिम भाग उप! नपदू ही वेदानत नाम से प्रसिद्ध है वे भी बसे दी प्रमाण है !
बेदात वाक्यों में तीन पदार्थों का. स्पष्टतया उल्लेख है, जड पदार्थ अपया जड़
प्रकृति जिसे प्रधान प्रकृति, माया या अविद्या कहते है । दूसरा चेतन आत्मा जो
कि' अर प्रमाण है । तीसरा ईइवर जो कि विभु और सवंनियन्ता हैं तथा. सत्य
शान श्रानन्द आदि क्रल्यागा गुणों से बिदिष्ट है । ब्रह्म में ये तीनों पदायें एक साथ
रहत है । प्रत्येक शरीर में हम देखते हैं कि उसमें रहने वाला एक चेतन आत्मों
होता है ठीक उसी प्रकार ईश्वर आत्मा तथा ईश्थर ग्रौर 1४ पदार्थ का भी संबंघ है ।
ब्रह्मा और ईश्वर एक ही है । उक्त तीन पदार्थों की समष्टि का नाम ही ब्रह्म वा
प्रद्त है । मंसार में स्थावर ग्रौर जगम दो प्रकार के जीब हैं । ज॑ंगम जीव अधिक
प्रारा शक्ति समन्वित हैं, स्थावर जीवों में प्राण शक्ति कम होती है । प्रत्येक सत्
वस्तु उपर्यक्त श्रैत में ही हैं । कोई भी जड॒ पदायं श्रात्मा और ईश्वर बिना नहीं
रह सकता । कोर भी साहमा प्रक़ाति और ईप्यर के बिना नहीं रह सकता तथा
ईश्वर भी प्रकृति गौर आत्मा के बिना नहीं रह सबनता । उदाहरण के लिए
मनुष्य ही को लें मनुष्य का अर्थ श्रापाततः शरीर ही होता है, अधिक विचार करने
पर ग्र्थ होता है शरीर में रहने वाला श्रात्मा, वेदात का कथन है कि आत्मा जसे
शरीर का संचालन करता है बसे ही ईश्वर आत्मा का. निवत्रसा करता है अतः
ईपवर प्रत्येक पदार्थ का अन्तर्यामी आत्मा है । इससे निश्चित होता है कि शरीर
तथा शरीर को धारण पोषण करने वाला चेतन्य आत्मा तथा उस थ्रात्मा को भी
धारण पोषगा श्रौर नियन्रगग करने वाला ईश्वर, इन तीनों की समष्टि ही यथाथ
थट्दत है । इस वेदात सिद्धान्त से परिणामवाद ही. प्रमारशित होता है विवर्तवाद
नहीं भ्रथत् कारग्ग ही कार्य बन जाता है । जेसे कि घट की कारण मृत्तिका श्ौर
घट एक ही वस्तु है तसे ही प्रह्म श्रौर जगत भी एक है | कारण के गुण ही कार्य
के गुण हैं । यदि हमें इस संसार रूप कार्य में तीन पदाथ दष्टिगोचर होते हैं तो
इसके कारगा में भी तीनों का होना श्रावश्यक है । जब वेद कहते है कि व्रद्ठा
जगत के कार रा हैं तो यह निश्चित हो जाता है कि एक में तीन छिंपे हैं और वे
ही एक के श्रन्तर्गत तीन के रूप में प्रकट होते हैं । परिशामनाद वेद सम्मत है जेसे
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