योग प्रयोग अयोग | Yog Prayog Aayog
श्रेणी : योग / Yoga
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
10.66 MB
कुल पष्ठ :
316
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
No Information available about डॉ. साध्वी मुक्तिप्रभा - Dr. Sadhvi Muktiprabha
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)रु द्वितीय उद्देश्य है-वर्तमान युग मे प्रचलित भ्रम का निवारण कि जैनो के पास योग नहीं है। किन्तु जैन साहित्य के विशाल वाड्मय मे दृष्टिपात करते ही वर्तमानकालीन इस प्रचलित मान्यता की अछूती भूमि का स्पर्श होता है कि आगम साहित्य से लेकर अठारहवी शताब्दि तक के समग्र जैन साहित्य मे विविध योग साधना का स्वरूप उपलब्ध है । हाँ इतना अवश्य है कि जैनों की योगविधि अत्यधिक गूढ रहस्यात्मक और मार्मिक रही है । साथ-साथ गुरु गर्भित होने से अनेक प्रक्रियाओ का अभाव हो गया है । तथापि जड-चैतन्य कां विंवेक ज्ञान ध्यान सयम और समाघि से प्राप्त चित्त की एकाग्रता एकाग्रता से वृत्तिओ का निरोध और मन वचन काया के परिवर्तन का प्रायोगिक विश्लेषण प्राप्त होता है । साहित्य सम्बन्धी योग विषयक मे तात्त्विक और अतात्त्विक उपाय ज्ञान-दर्शन और चारित्र का सम्यक बोध और अधिकार प्रक्रियात्मक रूप से पाया जाता है। अनेक साहित्यो मे ग्रन्थिभेद की गूढात्मकता स्पष्ट नजर आती है जिससे साधक यौगिक रूपान्तरण करने मे समर्थ हो सकता है । इतिहास साक्षी है कि योग अनादि है तथापि मानवीय धरातल पर अवतरित योगियो का जन्म जहाँ से प्राप्त होता है वहाँ से योग का प्रारम्भ मान लो तो जैन दर्शन में योग ऋषभदेव भगवान् से माना गया है । भगवान् ऋषभदेव जैन तीर्थकरो मे प्रथम तीर्थंकर है । कालगणना के अनुसार वे असख्य वर्ष पूर्व थे। अत जैन दर्शन के अनुसार वे आद्ययोगी है और उन्ही से परम्परागत योग मार्ग का प्रवर्तन हुआ है । जैनो के अतिम तीर्थकर परमात्मा महावीर के तत्त्वावधान में योग प्रक्रिया को दशनि का माध्यम आचाराग सूत्र आदि आगम मे प्राप्त होता है । जैसे-स्वय परमात्मा का ध्यान तत्सम्बन्धी विविध आसन आहार निद्रा आदि प्रयोगों के दिग्दर्शन के लिए आचाराग प्रमाण है। आचाराग सूत्र की भाति सूत्रकृताग स्थानाग भगवती सूत्र आदि मे भी प्रकीर्णक रूप मे भावना आसन ध्यान व्रत नियम सवर-समाधि आदि का वर्णन उपलब्ध होता है । उत्तराध्यन सूत्र के २८वे अध्ययन मे मुक्तिमार्ग का सक्षिप्त किन्तु सुव्यवस्थित शोधन प्रक्रिया का प्रतिपादन किया गया है । इसी सूत्र के २९ 3० एव ३२वें अध्याय मे इन्द्रिय-विजय मनोविजय मन-रिथरता और मन-सम्बन्धी विविधताओं के परिणाम आदि का विशिष्ट स्वरूप नियोजित है । आगम साहित्य के अतिरिक्त निर्युक्ति साहित्य म भी साधना की प्रक्रियाओ के विपुल स्वरूप का दर्शन होता है । आवश्यऊ निर्युक्ति के कायोरसर्ग अध्ययन में भी योमिक पप्षियाओ का सुनियोजित रण और आत्म-दर्शन का विशिष्ट सुपयोग वर्णित
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