कवि रहस्य | Kavi Rahasya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ११. ) दुर्वाप्रकाण्डरचिरास्वगरूपभो गात्‌ गोडाज्नासु चिरमेष चकास्तु वेष! ॥। [चन्दनचर्चितकचन पर विलसत सुन्दर हार । सिरचुम्बी सुन्दर दसन वाहुमूल उधघरार ॥ अगुरु लगाये देह में दूवों दयामल रूप | शेमित सन्तत हो रही नारी गोड अनूप ॥] उन देशों मे जाकर काव्यपुरुष ने जैसी वेशभूषा धारण की वहाँ के पुरुषों ने भी उसी का अनुकरण किया । उन देशों मे जैसी भाषा साहित्यवधू बोलती गई वहाँ वैसी ही बोली बाली जाने लगी। उसी बाल चाल की रीति का नाम हुआ 'गोडी रीोति--जिसमे समास तथा अनुप्रास का प्रयोग अधिक होता है । वद्दों जो कुछ नृत्य गीतादिकला उन्होंने दिखल्ाई उसका नाम हुआ “भारतीदृत्ति? । वहाँ की प्रवृत्ति का नाम हुआ “रोद्रभारती” । वहाँ से सब तोाग पाथ्वाल की श्रार गये। जहाँ पाथ्वाल-शूरसेन- ” हस्तिनापुर-काश्मीर-वाही क-वाह्लीक इत्यादि देश हैं । वहाँ जो वेशभूषा साहित्यवधू की थी उसका वर्णन ऋषियों ने यों किया-- ताटडूवरगनतर ज्ञितगण्डलेख- मानाभिलम्बिदरदे।लिततारहारमू । आश्रोणियुरफपरिमण्डलितोत्तरीयं चेष॑ नमस्यत मद्दोदयसुन्दरीणाम ॥ * तिडकी चश्वचल ऋलती सुन्दरगोलकपोल । नाभीलम्बित हार नित लिपटे वख्र अमल ।] इन देशों में जो चृत्यगीतादिकला साहित्यवधू ने दिखलाई उसका नाम “सात्वतीवत्ति' श्रौर वहाँ की. बोल-चाल का




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