सीकरी की दीवारें | Sikari Ki Deewaren

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Sikari Ki Deewaren by पंडित लक्ष्मी चंद्रजी जैन - Pt. Lakshmi Chandraji Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सीकरीकी दीवारें १७ सायेमे जा खड़ी हुई । जानती थी, खानखानाके जातें ही राजा दस्तक देने उधर मुडेगा । राजा मुडी ॥ जहाँनारा--फिर्‌ ? सकीना--फिर, शाहजादी, राजा मुडा । मीनारको दस्तक देनेके लिए जैसे ही वह शुका, उसने मुन्चे देखा । कुछ ठिठका, उसके मुंहसे हल्के-से निकल पडा--'कही देखा हैं।' 'देखा है', में वोली, 'प्रकोटेके पीछे, उसकी वगरूमे जिसका नाम कोई नही ले सकता । राजाकी आँखे चमकी । वोला--'परकोटेके पर्देके पीछे, हाँ । और हाँ, उसकी वगलमे जिसका नाम मेरे हियेका सेद हूँ ।' जहाँतारा--फिर ? फिर ? सकीना--फिर मेने कहा--“'वबत नहीं हैं? बस इतना है कि इसे दे दूँ ।' और मेने आपका मोतियोका हार उसकी ओर बढ़ा दिया । पछ भरमे दिलेर राजाके कन्वें झुक गये, लाहजादी । घुटने टेक उसने झुके सिरके ऊपर अपने हाथ उठा लिये । हार मैने उसकी खुली हथेलियोपर रख दिया । हारकों गलेमे डालता राजा वोला-- “कहना उस देवीमे, जो हार ले सुका हूँ उसे इस मुवताहारके वदले कंसे टूं ? पर उसे हृदयपर रखे छेता हूँ जहाँसे इसे भौत भी अलग न कर सकेगी । कहना, “गँवार राजपूतका कन-कन उस नामको टेर रहा है जो जवानपर नहीं लाया जा सकता ।' जहाँनारा--सकीना, तू सोना है ! अच्छा, फ़िर ? सकोना-दफिर राजा उठा । चला गया । उसके पैर वोझसिल हो रहें थे, मन-मन भरके, जैसे उठते न हो । मेनें उसे अँधेरेमे धीरे-धीरे गागव होहे देखा । जैसे सूरज पहाडके पीछे छिप जाता हैं, राजा भी दीवारोंके पीछे सुड॒ गया । पर जैसे सूरजका तेज ड्वकर भी नहीं खोता, राजावा तेज भी उस घृंधलेमे रोशन था 1




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