मार्कण्डेय महापुराणम | Markandeya Mahapuranam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“भूमिका दर असुरों के प्तिर पर सवार लक्ष्मी ने'भी यही किया । सम्पूर्ण विवेचन का अभिप्राय यह कि वेंदिक भर्वेदिक संदर्भो से प्राप्त सामग्री को समण्टि रूप से मार्क॑ण्डेय में स्थान प्राप्त हुआ । दत्ताबरेय अदधघून की घारणा ' इसी समध्टि की देन है । मे पक. के है पुराणों के अवतरण की विशेष चर्चा भारतीथ संस्कृति वैदिक और आगमिक मान्यताओं तथा रीति-रिवाजों का मिला जुला रूप है । धर्म साघनाओं मे ऋषि और सुनिधारा के रूप मे इसके स्रोत विद्यमान रहे । ऋषि मंन्त्र भाग के साथ जुड़े रहे तथा मूत्ति ब्रात्यघारा के प्रतिनिधि होने से लोक जीवन और सस्कारों से सम्बद्ध रहे । वैदिक साहित्य तथा आगमिक साहित्य की. दो विरोधी जीवन पद्धतियाँ तथा विचारणाएँ पौराणिक साहित्य में भाकर अस्तभुक्त हो गई। चाहे निर्यन्थ मुनि हों, चाहे पब्चरात्रवाही, पुराण संहिता को प्रतिवर्णाश्रमी अथवा स्त्री-शूद्र सभी के लिये सर्वेयुलभ मानते हैं । ईइवर सहिता के अनुसार शाण्डित्य, औपगायन, मौंजायन, कौशिक तथा भारद्वाज मुनि पुगव थे ।* मा्कंण्डेय पुराण में वेद के अधिकारी ऋषि तथा पुराण के अधिकारी मुनि बताए गए है। वेदान्‌ सप्तर्षयरतस्माज्जगुहु रतस्य सानसा: पुराण जगूहुदचाद्या सुनयस्तस्य मानसा: । उ५1२३ अर्थात्‌ प्रजापति ने वेद ऋषियों को तथां पुराण मुनियों को दिए । शंख स्मृति तथा महाभारत के व्तपर्व के १२वें अध्याय में मुनियों के स्वरूप की विस्तृत चर्चा हुई है। ऋषि सुनि का साधारण प्रयोग भले 'ही भमिन्नार्थक माना जाय किन्तु प्रस्तुत प्रसंग में यह भेद नितान्त प्रयोजन-निष्ठ कहा जाएगा । पुराण के वक्‍तूत्व का अधिकार भी माकंण्डंय सभी को प्रदान करते है । शत यही है कि वक्ता का जीवन तपस्या प्रधान तथा भपरिग्रही हो । माकेण्डेय के प्रारम्भ में जैमिनी का एक प्रइन यह भी है कि बलदेव जौ को तीर्थयात्रा के ब्याज से ब्रह्माहृत्या का प्रायद्चित क्यों करना पड़ा ? व . मेष ब्रह्महत्या का बलदेवो महाबल: । तीथंयात्रा प्रसंगेन कस्माच्चके हलायुध: । सा०' १1१ ४ जसिनी व्यास के, शिष्य है तथा साम के आचार्य है ।* रोमहषण पुराण के आचांयं है. तथा सुत, के पित्ता है । सुतजी पुराणों का प्रवचन, कर रहे थे ।बलरास मद्यपान कर कहां. पहुँचे ।,श्रोतारूप में उपस्थित ऋषियों ने उनकी अभ्युस्यानपूर्वक ,वन्दना की पर व्याव पीठ पर बेठे सुत 'जी नहीं उठे इससे करुद्ध-हो उन्मत्त : 'वलदेव ने सुतजी का वघ कर दिया । बाद मे उन्होंने प्रायदिचित किया । पश्चाताप किया । मत्तोध्यमिति मन्वाना: समुत्तरथुस्त्वरान्िता: पुजयन्तो हलघर सृते त॑ सुल वजम्‌,। ६1२६ -.भध्यास्यति पद ब्राह्म' तस्मिन्‌ सुते निपातिते .निष्क्ास्तास्ति द्विजा: सर्वे वनात . तसक्षयार्थ चरिष्यामि ब्रत॑ द्वाददा वाधिकम्‌ । ३४। वस्तुत: यह घटना ब्राह्मण गौर ब्राह्मणेत्तर सघपषे पर प्रकाश डालती को सूत्त जाति में उत्पन्न हुआ मानकर हीं बलराम जी ने वध किया -- ः . कस्माद ता पिमान्‌ विप्रानध्यास्ते प्रतिलोसज; घसंपालां स्तर्थवास्मान्‌ वधघमहंति दुर् ति: १०।७८।२४ इस पर ऋषियों ने कहा: कि प्रतिलोम जाति का होने पर भी.यह आचरण से ब्राह्मण है । अतः ब्राह्मणो- चित आसन पपर इनका प्रतिष्ठित होना अनुचित नही ।* वलराम जी इस पर उसके पृत्र सुत को ग ही पर बैठाकर पुराण वाचन का अधिकार प्रदान, करते है-- छुव्णाजिनाम्थरा: । ३० है । भागवत मे तो. रोमहषंण , मात्मा वे पुत्र उत्पन्न इति वेदानुन्नासनम्‌ तस्म[दस्य भवेद्‌ वक्ता आायुरित्द्रियलत्वचान । १०1७८। रे ६ किसी फिट टिश शा सकिटसरकटसविरससयपकननियममस नम नमन १... भध्यापयामास -यतस्ततस्तदेतन्मूनि पुगवा: । ईदवर..२१५१९,.५३२, भेद २. तत्र्वेदघर: पैल: सामगों जैमिनि: कवि: । इतिहास पुराणानां पिता मे रोमहषंणः । भा० १1२1६, ७, ८ दे... भस्य ब्रह्मासनं द्तमस्माभियंदुनन्दन: । भा० १०1७८।३०




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