सूरदास | Soordas

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Soordas by श्री सूरदास जी - Shri Surdas Ji

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्ति का विकास $ सिर पर चढ़ता है; .यहाँ तक कि कभी कभी दाढ़ी भी पकड़ लेता है। चह धर्म को प्यार करता है; धर्म उसे अच्छा लगता है। उसका आनन्दलोक भी शुष्क धार्मिको के स्वगें से उपर है । वह प्रिय या उपास्य का सामीप्य है । धर्म के इस अन्तिम रसात्मक पक्ष तक मनुष्य का हृदय उपास्य के स्वरूप की उन्नत भावना के उपरान्त पहुँचा है। असभ्य दूशा में पड़ी हुई जातियों के बीच देवता एक ऐसा शासक था जो पूजा से तुष्ठ हो कर ही रक्षा और कल्याण करता था और प्रूजा न पाने पर रुष्ट हो कर अनिष्ट करता था । उनकी पूजा भय और लोभ की प्रेरणा से ही की जाती थी । वनदेवता, श्रामदेवता, कुलदेवता इसी प्रकार के उपास्य थे । ज़ो प्राचीन जातियों सभ्य दूशा में थीं उन्होने सूय्य; चन्द्र, अभि, वायु इत्यादि प्राकृतिक शक्तियों को उपास्य ठद्दराया था जो बराबर उपकार ही किया करती थीं; पर रुष्ट होने पर अनिष्ट भी करती थी । अत: सामान्यतः उपकार में तत्पर ऐसी शक्तियों की पूजा में कृतज्ञता का भाव भी कुछ रददता था जो भय और लोभ से उन्नत भाव था । अत. ऐसे ' देवताओं की उपासना में धर्म के स्वरूप का आभास मिलता है । उपास्य के इस उपकारी स्वरूप के भीतर अखिल विश्व के पालक और रक्षक भगवान्‌ के व्यापक स्वरूप की भावना का अंकुर छिपा था । इस भवसागर सें वहददता हुआ मलुष्य छादिम काल से ही कभी सुख की तरंगो में उछलता और कभी दुःख के भेंवर में चकर ग्ग्ग




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