सचित्र मुख - वस्त्रिका - निर्णय | Sachitra Mukh - Vastrika - Nirnay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(४) समय मुंह की यत्ना की तरफ 'घ्यान नहीं रददेगा। इसी ही कारण जैन मुनि मुख-वस्त्रिका सुख पर सतत यांघे रहते हैं । नवीन प्रणाली के चलाने चालें ने भी एक समय में दो उपयोग नहीं ,इसी वीर वाक्य पर ध्यान दे कर व्याख्यानादि देते समय मुखपत्ती सुख पर वान्ध कर देना,एसा प्रत्येक स्थल पर शझप- ने रचित ग्रन्थों, ठीका, भाप्य, नियुक्ति में उट्लेख किया हैं । जो लाग झपने पूर्वांचायों की उक्त श्याज्ञा का पालन नहीं करते इुए मुखपत्ती को द्दाथ में ही रख कर ब्याश्यानादि देते हैं । उस समय मुखपत्ती चाला उन का हाथ कभी विलास भर, कभी हाथ भर दुर चला जाता है । जब व्याख्याता दोनों हाथों को फैलाता है, उस समय मुखपत्ती मुँद से कितनी दूर पर चली जाती है । जिस समय मुख- पत्ती वाले दाथ को उपदेश दाता नीचे की शोर ले जाता दे । उस समय कठटि से नाचे घटने के पास सखपत्ती चली जाती है। और उपद्शक जी हृदय को दया विह्दीन कर बिना ड.. मुखपत्ती के खुल्ले मेंदर से बेखटके बोलते हुए चले जाते हे है । भवभीरू द्याद्रंव-हृदयी पुरुपों के जस्यि किसी परार्णा का यर्केचित भी (दल दुग्ख जाता है तो वे उसका सारा दिन भर पश्चाताप करत रद्दते है । किन्तु, दमारे नर्वाीन प्रणाली के प्रचारक मनि नामघारी झट्टिसा के उपासकों के हृदय में उन एक चक्क खुलने सेंदद बोलने पर मरजाने चाले श्रपादिज अझसंख्य चायु-कायिक जीवों पर तनिक भी दया प्राप्त नहीं दोती । झफसास ? झाफसोस !! जिनारम दि दित प्राचीन प्रयाली की उत्थापना कर दाथ में मुखपत्ती धारण करने की नवीन प्रणाली के जन्म दाताओं को नवीन योजना निकालते समय तो तनिक भी विचार नहीं छुवा; किन्तु झब उन को विचार उत्पन्न होने लगा कि उपदेश देते वक्त मुंदद की यत्ना की शोर ध्यान रखें कि देशना की तरफ,




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