भारत नेपाल | Bharat - Nepal

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Bharat - Nepal by कपिलदेव नारायणसिंह "सुहृद" - Kapildev Narayan Singh 'Suhrid'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'वाढ़ह्ि पुत पिता के धर्म्मा । श्रपने पु्वेजों के पुष्य-प्रताप से मैं इतना फूलता-फलता रहता हूं ।' जिस प्रकार सलिल के मध्य में स्थित किजत्क सलिलासक्त नहीं होता उसी प्रकार सुहद जी संसार-सागर के भँवर चक्र में रहते हुए भी उस में झासक्त नहीं हो पाते । संसार उनके लिए एक कीड़ा-क्षेत्र है श्र एक ईखिलाड़ी की तरह ही वे इसमें जीते हैं वे सर्वेकल्याण में स्व-कल्याण सानते हैं। इसलिए वे श्रपकार करने वालों का भी उपकार करते हैं । ऐसा है उनका श्रदुभुत जीवनदर्शन, ऐसी है उनकी साघना-दृष्टि और ऐसा है उनका श्रात्म दृष्टिकोण । प्रत्येक व्यक्ति की अपनी रुचियाँ होती हैं, अपने दृष्टिकोण होते हैं और झ्पने विचार होते हैं जिनके श्रनुसार वह स्थान विशेष को देखता है, उसके चारे में सुनता है श्रौर प्रभावित होता है । राजनीतिज्ञ श्रपनी दृष्टि से देखता है और साहित्यकार भ्रपनी दृष्टि से सुहहद जी राजनीतिक श्रौर साहित्यिक दोनों दृष्टियों से देखते हैं क्योंकि राजनीति श्रौर साहित्य दोनों में उनका समान प्रवेश है । भारत के हर क्षेत्र के हर फिरके के लोगों से उनका परिचय है । यही कारण था, भारत सरकार ने १९४६ ई० के दिसम्बर में उनके नाम पर बेगूसराय रेलवे स्टेशन से सटे उत्तर सुहदनगर नामक डाक घर खोलने की आज्ञा दे दी । उन्होंने एक विज्ञाल भवन वनवाकर इस कार्य के लिए भारत सरकार को सौंप दिया । उसके वगल में एक बहुत बड़ी चहार दिवारी के अन्दर एक सुन्दर तिमंजिला भवन है जिसमें वे रहते हैं। ईट-पत्थरों से निर्मित यह भवन यही कहता है कि मैं और भवनों से कुछ और हूँ; मुझे महल के रूप में मत देखिए, मेरे कण-कण में कुटीरी पावनता है, चप्पे-चप्ये पर त्याग तपस्या की मुहर नजर वन्द है श्र झापादसस्तक साधना श्र श्रजेयता की छाप है । यह भवन मेरे श्र मेरे श्रग्रज के नाम से है। श्रतिथियों के लिए इसमें सारी व्यवस्थाएँ हैं श्रौर रहेंगी । श्री सुहद जी जब तक इस श्रसार संसार में रहेंगे, इसमें रहेंगे जैसे रहते श्राये हैं और उनके झतिथि भी । मेरे दोनों श्राताओं की यह इच्छा है कि यह भवन सर्वत्र अतिथि-भवन बना रहें । जिस कार्य की सिद्धि के लिए अ्रन्य व्यक्ति हार सान लेते हैं उसके लिए आप सुहद जी को प्रस्तुत पायेंगे । ईद्वर पर उन्हें प्रखण्ड विद्वास है। व




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