हिंदी का सामयिक साहित्य | Hindi Ka Samyik Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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( ७ दिंदी तथा अन्य सभी संस्कृत प्रात भपश्रश से संत्रद भाषाओं में व्यंजना का प्राघान्य है । यहाँ तक कि फारसी की अनुरागिणी उदृू में भी लाक्षणिकता श्रथवा मुद्दावरेबंदिश की विशेष ग्रदृत्ति होते हुए भी लाक्षणिक भाव-मंगिमा कां प्राघान्य नहीं । व्यंजनात्सकता की अभमिरुधि उसमें भी है । अतः ठाक्षणि- कता की मोर बढ़ना श्राव्यक जान पढ़ा । उदूं में . जो छाक्षणिकता है वह रूढ़ है बैँी हुई है। बैँघे नियमों का त्याग करके नए प्रयोग करने पर एक प्रकार की रोक लगी है । हि लासणिक वैठसण्य अँगरेजी में सबसे अधिक है । हिंदी का शान न रखनेवाले जो इस लाच्षणिकता पर टूटे तो हिंदी अँगरेजी होने लगी। भाज हिंदी जो अैँगरेजी की दासी बनी है उसका यही कारण दै। हिंदी का स्वच्छुंद विकास न होने में अँगरेजी की नकल ने मारी बाधा पहुँचाई । भारतेंदु-युग के लेखकों की दिंदी भोर भाघुनिक हिंदी फो सामने रखकर मिला देखिए । पक में दिंदीपन है दूसरी में अँगरेजीपन । . समाचास्पत्रों ने तो अँगरेजी से बाब्दानुवाद कर करके दिंदी की ऐसी रीढ़ मारी है कि उसके खड़े होने में समय लगेगा । खड़ी चोठी वैठ गई है आंगरेजी की मार से उसके भार से । . भाज जो पर्यायवाची दब्द चन रहे हैं उनमें दिंदीपन क्यों नहीं मिलता । उत्तर है-ंगरेजी की मार से । हिंदी का स्वच्छंद विकास रुक गया । कोई नया प्रयोग हिंदी का अपना खोजने से मिलेगा । अँगरेजी के प्रयोगों का शब्दा- नुवाद पंक्ति-पंक्ति में मिल जाएगा । दिंदी का निज भाषा का शान नहीं रह गया। पदले हिंदी के लेखक बँँगला के गुजराती के मराठी के अनुवाद करते थे उनमें न बैंगलापन श्राता था न गुजरात्तीपन न मराठीपन । हाँ बैंगला के गुजराती के मराठी के अनेक शब्द भाए चले आज मी च्ते हैं। हिंदी अपनापन लिए रही 1 व्यजी श्रच तो अैँंगरेजी का मोदद छोड़ो । यदि कुछ दूसरा पन लेना ही है तो क्यों नहीं वँगलापन शुजरातीपन भराठीपन तमिलपन को भपनाति । जिन भाषाश्रों के संपर्क में हिंदी वहुत दिनों से री जिनके चीच उसे रहना है । अँगरेजी से विदेशी से अपना गला छुड़ा लो देशी को गले लगाठो । दिंदी को सची भारती बनाओ । अन्य-माषा-भाषी यदि यह समसते हैं कि दम पर हिंदी का साम्राज्य छद रहा है तो क्यों नहीं उन्हीं का साम्राज्य हिंदी पर लदने देते । इससे हिंदी की कोई क्षति न दोगी । उसका बल चढ़ेगा । उसकी समन्वय-साघना दृढ़ होगी। भारतीय भाषाओं का मूल एक है फिर हिंदी के विकास में उनका सहयोग उनका लदाव कभी बाधक न होगा। क्यों नद्दीं कद दिया जाता कि हिंदी बंगला मराठी गुजराती




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