हिंदी का आधुनिक साहित्य | Hindi Ka Adhunik Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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्ड पी उख्न्तिं-युग , : ही जनवरच्ल नी नमी ०, भूमिका हर यु श कर पद छ्फु <. प्र प्ब् युर || है न अं डा नर ५ चल परम ् घीरे रीति या परम्परा की जडता में इतना आ्रावद्ध हो गया, कि उसमे कवित्व की रही-सही मात्रा का भी लोप हो गया । भाषा, छन्द, या अलकार के व्यामोह ने कथित्व की सत्ता को ही जंसे समाप्त कर दिया हो ! बदलती परिस्थितियों के प्रति कवि सजग न रहा । यह व्यामोहू काव्य मे ही नहीं था; राजनैतिक क्षेत्र मे भी यहीं व्यामोह छाया हुद्रा था । ग्रीरंगजेव के राज्य-जासन के उत्तरार्थ से जो पतन का इतिहास श्नारम्भ होता है वह मारत की पूर्ण पराधीनता मे ही जाकर समाप्त होता है । इस प्रकार सन्‌ १८४८ ई० की पूर्ण पराधीनता भी एकाएक नहीं श्राई थी । उसका भी कारण था--यही व्यामोह '. दरबारी-षड्यन्त्र, आपसी भेद-भाव, एव बद्यानुगत शात्रुताश्रो ने इतना विकराल रूप धारण किया कि बद- लती परिस्थितियों की श्रतिक्रिवा शून्य-प्राय-सी रह गई. सिराजुद्दौला, टीपू सुल्तान, या इसी प्रकार के अन्य प्रतिरोध इक्के-दुक्कें श्रसहाय प्रयट्नमात्र ही बन कर रह गये ) समथे रामदास व सन्त तुकाराम का उत्तेजक व “सस्ती भरा धार्मिक स्वर भी उस युग के धर्म ब्यासोह मे धीरे-धीरे शून्य हो गया । वार्मिक-क्षेत्र मे भी गतानुगतिकत्ता एव जडता व्याप्त होती गई । बदलती परिस्थितियों के प्रति चेतना का विद्रोह दव-सा गया | चहु युग प्रतिक्रिया हीन जड़ता का युग बन चुका था । प्रस्तुत यूग -तव श्राया नया युग 1 सन्‌ १८०३ ई० मे साहित्य मे नई चेतना का स्फुरण स्पष्ट हुवा । इंशा श्रत्ला खाँ एवं सुनी सदासुखलाल ने नयी “वोली' ही-नहीं श्र




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