चैत मानखा | Chait Manakha
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.75 MB
कुल पष्ठ :
150
श्रेणी :
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लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :
कोमल कोठारी - Komal Kothari
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विजयदान देथा - Vijaydan Detha
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)साहित्य भी हमारी ही साफ्क़तिक निनि का एक अग्ल्य रन है। इस
साहित्य में लोक-रुचि , लोक-मानस, लोक अचुभ्रूतियों एव लोकसम्मतत
साधारण भावों को निरतर प्रश्न मिलता रहा । यह साहित्य अपने गुणों
को साहित्यिक या कलात्मक सापदडों मे स्वीकार कराने के लिए युगो-
युगों से मौन साध रहा । इस साहित्य को प्रतीक्षा थी कि एक दिन ऐसा
समाज आयेगा जो हर आदमी को समान अधिकार देगा , सबको विक-
सित होने का अधिकार देगा , व्यक्ति की स्वततत्रता का पोपक होगा ,
आदमी और आदमी के वीच की कृत्रिम वड़ाई-छोटाई को मिटा देगा
और उस जनतत्र के युग की प्रतीक्षा का अत्त उस ठिन हुआ जव भारत
ने अपने स्वतत्र विधान का निर्माण किया । वयस्क मताधिकार की स्वी-
कृति के साथ ही व्यक्ति का महत्व वधानिक रूप से स्वीकार कर लिया
गया । लोकसाहित्य और लोकतत्र का यहा वहुत गहरा सम्बन्ध है ।
लोकतत्र की स्थापना या लोकतत्र की भावना की स्वीकृति के बिना
लोकसाहित्य की उन्नति या उसके तत्वों को ग्रहण करने का प्रहन ही
नदी उठ सकता था ।
इस प्रकार हम देखते है कि लोकतत्र की सामाजिक मान्यता के
साथ लोकसाहित्य की सदक्त भाव-घारा ने अपना गर्वीला सिर उठाया |
उसने भी अपनी परपरा की स्वतत्र सान्यता स्थापित करवाई । श्री
रेवतदान की कविता के रूप के विवेचन के समय यह ध्यान रखना आव-
इयक है कि उनकी कविता मे जो 'सामाजिक' है वह समाज से टरट कर
या परपरा से विच्छिन्न होकर ' सामाजिक ' नही है , अपितु समाज के
रासायनिक विकास के दौर मे ही ' सामाजिक है । श्री रेवतदान के
छद , उनके अलकार , उनके वात कहने की पद्धति , सभी वातो पर
राजस्थानी लोकसाहित्य और विजेप कर लोकगीतो के तत्वों का प्रभाव
है । इसका अथं यह हुआ कि रेवतदान ने जिस परपरा को ग्रहण किया
चहू परपरा केवल वुछ ही पढे-लिखे या लास्त्रन लोगो की काव्य-रसि-
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