चैत मानखा | Chait Manakha

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कोमल कोठारी - Komal Kothari

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विजयदान देथा - Vijaydan Detha

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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साहित्य भी हमारी ही साफ्क़तिक निनि का एक अग्ल्य रन है। इस साहित्य में लोक-रुचि , लोक-मानस, लोक अचुभ्रूतियों एव लोकसम्मतत साधारण भावों को निरतर प्रश्न मिलता रहा । यह साहित्य अपने गुणों को साहित्यिक या कलात्मक सापदडों मे स्वीकार कराने के लिए युगो- युगों से मौन साध रहा । इस साहित्य को प्रतीक्षा थी कि एक दिन ऐसा समाज आयेगा जो हर आदमी को समान अधिकार देगा , सबको विक- सित होने का अधिकार देगा , व्यक्ति की स्वततत्रता का पोपक होगा , आदमी और आदमी के वीच की कृत्रिम वड़ाई-छोटाई को मिटा देगा और उस जनतत्र के युग की प्रतीक्षा का अत्त उस ठिन हुआ जव भारत ने अपने स्वतत्र विधान का निर्माण किया । वयस्क मताधिकार की स्वी- कृति के साथ ही व्यक्ति का महत्व वधानिक रूप से स्वीकार कर लिया गया । लोकसाहित्य और लोकतत्र का यहा वहुत गहरा सम्बन्ध है । लोकतत्र की स्थापना या लोकतत्र की भावना की स्वीकृति के बिना लोकसाहित्य की उन्नति या उसके तत्वों को ग्रहण करने का प्रहन ही नदी उठ सकता था । इस प्रकार हम देखते है कि लोकतत्र की सामाजिक मान्यता के साथ लोकसाहित्य की सदक्त भाव-घारा ने अपना गर्वीला सिर उठाया | उसने भी अपनी परपरा की स्वतत्र सान्यता स्थापित करवाई । श्री रेवतदान की कविता के रूप के विवेचन के समय यह ध्यान रखना आव- इयक है कि उनकी कविता मे जो 'सामाजिक' है वह समाज से टरट कर या परपरा से विच्छिन्न होकर ' सामाजिक ' नही है , अपितु समाज के रासायनिक विकास के दौर मे ही ' सामाजिक है । श्री रेवतदान के छद , उनके अलकार , उनके वात कहने की पद्धति , सभी वातो पर राजस्थानी लोकसाहित्य और विजेप कर लोकगीतो के तत्वों का प्रभाव है । इसका अथं यह हुआ कि रेवतदान ने जिस परपरा को ग्रहण किया चहू परपरा केवल वुछ ही पढे-लिखे या लास्त्रन लोगो की काव्य-रसि-




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