भक्ति दर्शन | Bhakti Dasharan

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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भक्ति । (१३) अयोजन हे; न आचार-विचार की मयांदा है, न वर्णाश्रम कीं परिपाटी है न योगाभ्यास की कठिनता है; और न न्नत-तपस्पा की कठोरता हैं, इसकारण ही आचायों ने “ आों अन्यस्मात्सौल्यं भक्तो ” ऐसा कह भक्तिमार्ग व्हो ही सब मार्गों से सुलभ भत्तिपन्न किया है, यदि परमेश्वर की कूपा से साधक भक्ति का अधिकारी होजाय तो साधन के संपूर्ण वक्र मार्ग पड़े रहते हैं और वह सौसाग्य- वान्‌ साधक उन सभों को भेदन कर तुरत ही छक्षस्थल पर पहुंच जाता हे । भक्ति केसे उदय होती है इस का पता कोई भी नहीं लगा सक्ता) परंतु भक्तिमाव्‌ साधक इतना ही कहते हैं कि केवल भगवतकूपा से ही भक्ति की भाति होसक्ती है । जैसे प्रचंड मभाचाली मार्तेड अपनी ही किरणों की चाकि द्वारा पथिवी से जल अंदा को बाप्प में परिणत कर आका- या में आकर्षण करके अपने आप को ढक प्रथिवी. को घोर अन्धकारमय करं देते हैं, पुनः अपनी ही तेज दाक्ति द्वारा ऊष्णता की दृद्धि कर उन्हीं बाप्परूपी मेघों को वृष्टि-जल में परिणत करके अपने आप को तंमशुक्त करते छुए प्राथिवी को पूव्बे रूप से अकाझित किया करते हैं; वेसे दी श्रीमग- वान्‌ अपनी अलौकिक क्रिया दारा जीव को माया में मोहित कर नाना खेल खिलाते हैं, पुनः जीव पर कपा घच्चा हो भक्ति-वारि सिंचन द्वारा उसे पवित्र कर अपनी. गोद में उठा अपने में मिला लेते हैं। इंश्वरकंपा दी भक्ति के उदय _ होने का .पएंकमान्न कारण है. ! महार्ष नारदजी ने' कहां है कि; “आओं सुख्यतर्ठ॒ मंहत्कृपयेव भगवतकपा. लेचांड्वा, ” अर्थात्‌ भक्ति के उदय होने के दो सुख्य- कारण हैं; अ्ंथम महदात्मांगणों की कपा आर द्वितीय भगवाव्‌ की. कृपा; पंरन्ठ यह दोनों एक “ही. पेंदार्थ हैं क्योंकि: भगवद्‌-




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