नव उपनिषत संग्रह | Nav - Upanishad - Sangrah

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : नव उपनिषत संग्रह - Nav - Upanishad - Sangrah

लेखक के बारे में अधिक जानकारी :

No Information available about पं० देवेन्द्रनाथ जी शास्त्री - Pt. Devendranath jee Shastri

Add Infomation AboutPt. Devendranath jee Shastri

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
इशोपनिपद । ७ कक शथसयएलयतकरफकफटजन लय चिननयपययनाथरचकल अ्न्यदेवाहुः सम्भवादन्यदाहुरसम्भवात् । इति शुश्रुम धीराणां ये नस्तद्विचचक्षिरे ॥१३॥ कार्य जगत्‌ की उपासना से ओर फल कहते हैं, और जड़ कारण की उपासना से 'र फल प्राप्त होता है। ऐसे हम धीर पुरुपों के वचन सुनते श्राते हैं जो विद्वान हमारे लिये उन वचनों का व्याख्यान करते रहे हैं । सम्भरतिश्व विनाशश् यस्तद्रदोभय स ह। विनाशेन सत्य तीर सम्भत्याध्यत मश्ुते ॥१४॥। जो मनुष्य कार्य रूप अकृति और विनाश '्र्थात्‌ कारण रूप प्रकृति इन दोनों को साथ २ जानता है वह (विनाश) कार- णात्मक म्रकृति के ज्ञान से सत्यु को तर कर कार्य शरीर से ही मत पद को प्राप्त दोता है--इसका झाशय यदद है कि प्राकृतिक तत्व ज्ञान के विना आत्मा और ईश्वर का विवेक नहीं हो सकता, इस लिये जब मनुष्य प्रकृति की वास्तविकता को जान लेता है तच जन्म मरण के वन्धन से छूट कर इस शरीर से दी जीवन मुक्त दशा को प्राप्त करके ब्रह्मानन्द को प्राप्त कर लेता है। प्रश्न-परमात्मा के स्वरूप का ज्ञान मनुष्य को क्यों नहीं' होता । उत्तर-- हिरणमगरेन पात्रेण सत्यस्पापिहित॑ मुखम्‌ । तलंम्पूपलयाइशु सत्यघर्माय इट्ये ॥१४॥: चमकीले सुवर्णादि के पात्र से सत्य का सुख ढका हुआ ' श न # ननन्ाध




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now