राधाकान्त | Radhakant

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Radhakant by बाबू ब्रजनन्दन सहाय - Babu Brajanandan Sahay

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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राघाकान्त । दे बच लकी कप. ही थे... बिक व का स्का ही रा. व बम कर की हा न ल्थ भोगनें लगा । इरेन्ट्र सुझ्मे भ्रपने सुखोंमें भूल गया । किन्तु में उसे नछ़ों भूल सका । भगा जिनके संग हम लोग लड़॒कपनमें सत्र ह करते हैं जिनके संग सटा बेठा उठा करते है भ्रौर जिनके साध सटा पढ़ा लिखा करते हैं उनमेंसे कितनोंको इम लोग युवा होने और रटहस्थोका वोभक सर पर उठाने बाद याद रखते हैं ? समयके तीन्र प्रवाइमें सब पूवस्म ति डूब जातो है। फिर कभी कभी ऐसा समय मभोश्रा जाता डै कि लिसे देखे थिना रहा नद्दीं जाता था उसे भ्रपनी अँखोंके सामने खड़ा देखकर भी पह्चानना कठिन हो जाता है । परन्तु मेरे छटय-पट पर दइरेन्ट्रका चित्र ऐसे गाढ़ रद और पुर अद्डोंसे अड्त था कि यदि मैं इच्छा करता तोभी मैं उसे भूल नदीं सकता था । काल आर ढेशका अन्तर उसे कदापि फोका न कर सके और यद्ाँ तो इम दोनों एकछो स्थानमें रदते थे। व मुझे टडेखता छो वा ऩीं किन्तु में तो उसे सवदा देखा करता था । सु देख कर भी हो सकता है कि व मुफ्के पष्चानता न छो किन्तु मैं तो दूर हो से उसे पष- चान लेता था। घनको अधिकतासे सुनता छह कि लोगोंकी दषटटिशक्ति मस्द पड जाती है और स्मरण-शक्ति भो वेसो प्रबल नदीं रइती । मैं जानता था कि इरेन्ट्र




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