स्मृति की रेखाएँ | Smrit Ki Rekhaye

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Smrit Ki Rekhaye by महदेवी वर्मा - Mahadevi Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ स्मृति की रेखाएँ भक्तिन के बेटी दासाद उसके नाती को लेकर बुलाने आ पहुँचे, पर बहुत समभाने बुभाने पर भी वह उनके साथ नहीं जा सकी । सबकों वह देख आती है, रुपया भेज देती है, पर उनके साथ रहने के लिए सेरा साथ छोड़न। वइयक है जो सम्भवतः भक्तिन को जीवन के अन्त तक स्वीकार न होगा । जब गतवष युद्ध के भूत ने वीरता के स्थान में पलायन-दत्ति जगा दी थी तब भक्तिन पहली ही बार सेवक की विनीत मुद्रा के साथ मुझसे . गाँव चलने का अनुरोध करने आई । वह लकड़ीं रखने के सचान पर नई धोती विछाकर मेरे कपड़े रख देगी, दौवाल में कीलें गाढ़ कर घोर उन पर तख्ते रखकर मेरी किताबें सजा देगी, धान के पुल का गंदा बलवाकर र उस पर अपना कम्बल बिछाकर वह मेरे सोने का प्रबन्ध करेगी, मेरे रंग, स्याही, आदि को नह हैँडियों में सँजोकर रख देगी और कागज पत्रों को छीकें में यथाविधि एकत्र कर देगी । “ मेरे पास वहां जाकर रहने के लिए रुपया नहीं है * यह मैंने मक्तिन के प्रस्ताव को अवकाश न देने के लिए कहा था, पर उसके परिणाम ने मुझे विस्मित कर दिया । भक्तिन ने परम रहस्य का उदघाटन करने की सुद्दा बनाकर और अपना पोपला मुँह मेरे कान के पास लाकर दोले होसे बताया कि उसके पास पांच बीसो और पांच रुपया गड़ा रखा है । उसीसे वह सब प्रबन्ध कर लेगी । फिर लड़ाई तो कुछ असरोती खाकर औआइ नहीं है। जब सब ठीक हो जायगा तब यहीं लोट आयेंगे । भक्तिन की कंजूसी के अमाण पुज्ीभूत होते होते पवृत्ताकार बन चुके थे, परन्तु इस उदारता के डाइनामाइट ने च्ण भर में उन्हें उड़ा दिया । इतने थोड़े रुपये का कोई महत्व नहीं, परन्ठु रुपये के प्रति भव्तिन का अजुराग इतना प्रख्यात हो चुका है कि मेरे लिए उसका परित्याग मेरे मददत्व को सीसा तक पहुँचा देता है । मक्तिन और मेरे बीच में सेवक स्वामी का सम्बन्ध है यह कहना न: जद




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