आचार्य कुंदकुंददेव | Acharya Kundkunddev
श्रेणी : जीवनी / Biography, जैन धर्म / Jain Dharm
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.23 MB
कुल पष्ठ :
136
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)आचार्य कुंदकुंददेव २१
का हमें अध्ययन अवश्य करना चाहिए । एवं उनकी सुखदायक
साधना से परिचित होकर उसे अपने जीवन में यथाशक्ति प्रगट करने
का मंगलमय कार्य करना चाहिए । अत£ आइए प्रथम इनके जीवन
के संबंध में अद्यावधि पर्यत शोध-बोध से प्राप्त विषयों का ऐतिहासिक
तथा तात्विक दृष्टिकोण से अवलोकन करें |
एक ओर घना जंगल और उसमें ही शिखर-समान शोभायमान
उत्तुंग पर्वत, उन पर्वतों को पराभूत करके अपनी उन्नति को
दशनिवाले गगनचुम्बी वृक्ष, दूसरी ओर समतल प्रदेशों में उगी हुई
हरी-भरी घास का मैदान तथा इन दोनों के मध्य में मन्द मन्द
प्रवाहमान स्वच्छ जल की निर्झरणी, ये सब एकत्र होकर निसर्ग
सौन्दर्य के अत्यधिक वैभव को दर्शा रहे थे |
यह स्थान नगर के कृत्रिम जीवन से श्रान्त जीवों को स्वाभाविक,
सुख-शान्तिदायक था । .इस शांत तथा निर्जन स्थान में यदाकदा
संसार, शरीर और भोगों से विरक्त अनेक साधुवर आकर उन पर्वतों
की गुफाओं में बैठकर आत्मा की आराधना करते थे; अनुपम
आत्मानद भोगते थे ।
लगभग पंद्रह वर्ष का कौण्डेश नामक ग्वाला था । यह एक
भोला-भाला, सरलस्वभावी नवयुवक अपने स्वामी की गायों को लेकर
उसी घास के मैदान में चरने के लिए छोड़ता था । और स्वयं उस
निर्मल व मनमोहक निर्झरणी के पास विशाल शिलाखण्ड पर बैठकर
प्रकृति के सौन्दर्य का रसपान किया करता था ।
एक दिन कितने ही सुसंस्कृतत नागरिकों को उस जंगल में आते
हुए देखकर कौण्डेश को आश्चर्य हुआ । वह सोचने लगा :-“मैं
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