आचार्य कुंदकुंददेव | Acharya Kundkunddev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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आचार्य कुंदकुंददेव २१ का हमें अध्ययन अवश्य करना चाहिए । एवं उनकी सुखदायक साधना से परिचित होकर उसे अपने जीवन में यथाशक्ति प्रगट करने का मंगलमय कार्य करना चाहिए । अत£ आइए प्रथम इनके जीवन के संबंध में अद्यावधि पर्यत शोध-बोध से प्राप्त विषयों का ऐतिहासिक तथा तात्विक दृष्टिकोण से अवलोकन करें | एक ओर घना जंगल और उसमें ही शिखर-समान शोभायमान उत्तुंग पर्वत, उन पर्वतों को पराभूत करके अपनी उन्नति को दशनिवाले गगनचुम्बी वृक्ष, दूसरी ओर समतल प्रदेशों में उगी हुई हरी-भरी घास का मैदान तथा इन दोनों के मध्य में मन्द मन्द प्रवाहमान स्वच्छ जल की निर्झरणी, ये सब एकत्र होकर निसर्ग सौन्दर्य के अत्यधिक वैभव को दर्शा रहे थे | यह स्थान नगर के कृत्रिम जीवन से श्रान्त जीवों को स्वाभाविक, सुख-शान्तिदायक था । .इस शांत तथा निर्जन स्थान में यदाकदा संसार, शरीर और भोगों से विरक्त अनेक साधुवर आकर उन पर्वतों की गुफाओं में बैठकर आत्मा की आराधना करते थे; अनुपम आत्मानद भोगते थे । लगभग पंद्रह वर्ष का कौण्डेश नामक ग्वाला था । यह एक भोला-भाला, सरलस्वभावी नवयुवक अपने स्वामी की गायों को लेकर उसी घास के मैदान में चरने के लिए छोड़ता था । और स्वयं उस निर्मल व मनमोहक निर्झरणी के पास विशाल शिलाखण्ड पर बैठकर प्रकृति के सौन्दर्य का रसपान किया करता था । एक दिन कितने ही सुसंस्कृतत नागरिकों को उस जंगल में आते हुए देखकर कौण्डेश को आश्चर्य हुआ । वह सोचने लगा :-“मैं




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