गोम्मटसार ( जीव कांड ) | Gommatsar (Jiv Kand)

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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गोम्मटसार जीवकाण्डमु १५ राजमल्ठ और रवंकस गगराज ये दोनो ही भाई थे। उपयुक्त गोम्मटसारकी पक्तियोसे स्पष्ट है कि राजमल्ठ चामुण्डराथ तथा श्री नेमिचद्रसिद्धांतचक्रवती तीनोही समकाछीन है राज- मल्लका संमय विक्रमकी ग्यारहवी सदी निश्चित की जाती है। अततएव स्वयं सिद्ध है कि यही समय चामुण्डराय तथा श्री नेमिचन्द्रसिद्धाततचक्रावर्तीका भी होना चाहिये | नेमिचन्द्रसिद्धांतचक्रवर्तीने कई जगह वीरनदि आचायंका स्मरण किया है। यथा .-- जस्स य पायपसाएणणंतसंसारजलृद्टिमुत्तिण्णो । वीरिंदणंदिवच्छो णमामि त॑ अभयणंदियुरुं | णमिकण अमयणंदिं. सुदसागरपारगिदण दिगुरं वरवीरणंदिणाहं पयडीणं॑ पच्चयं बोच्छं | णमह गुणरयणमूसणसिद्धतामियमहब्थिमवभावं | वखीरणंदिचंद॑. णिम्महगुणमिंदणंदिगुरुं ॥| इन्ही वोरनंदिका स्मरण वादिराज सूरीने भी किया है। यथा --- चन्द्रप्रभागिसंत्रद्धा रसपुष्टा मनप्रियमू । छुमुदतीव नो धत्ते भारती बीरनंदिन) || ( पार्व॑ताथकाव्य दो ३० ) वादिराज सूरीने पाइवंनाथ काव्यकी पूर्ति शक सं० ९४७ मे की हैं यह उसीकी अन्तिम प्रशस्तिके इस पच्यसे मालूम होता है । शाकाब्दे नगवार्धिरस्धरगणने संपत्सरे क्रोधने मासे कार्तिकनाम्नि वु द्विमहिते शुद्धे दुतीयादिने । सिंहे पाति जयादिके वसुमतीं जेनी कथेयं मया निष्पत्ति भमिता सती भवतु वः कल्याणनिष्पत्तये ॥ गर्थात्‌ शक सम्वतु ९४७ ( क्रोध सम्वत्सर ) की कार्तिक शुक्छा तृतीयाकों पाइवंनाथ काव्य पुर्ण किया इस कथनसे यद्यपि यह मालूम होता है कि वीरनदि आचायें शक संवत्‌ ९४७ के पहुलें ही हो चुके है तथापि जब कि वीरनंदी आचाय॑ स्वयं अभयनंदीको गुरु स्वीकार करते हैं ओर नेमिचद्रसिद्धातचक्रवर्ती भी उनको गुरुरुपसे स्मरण करते हैं तव यह अवश्य कहां जा सकता है कि वीरनदिं और नेमिचन्द्र दोतो ही समकालीन हैं । गोमटुसारकी गाथाओका उल्लेख प्रमेयकमलमातंण्डमे भी मिलता है । यथा -- विस्गहदिसावण्णा केवछ्तिंगों समुददो अजोगी य | सिद्धा य अणाहारा सेसा आहारिणों जीवा ॥ ( ६६५)




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