गुलाबकुंवरी भाग 1 | Gulabkunvri Bhag 1
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
15.87 MB
कुल पष्ठ :
346
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)*# पहला भाग २ श्ट्े
: महाराज कौन ? 2: है
नकावपोश,- ( नेकाव पीछे उछट कर ) “ में हूं महाराज
दा भत |]: हद दूनथ बदन * ्
महाराज- अहा ! दारोग़ “ पुतलीमइर ! * तुम ओगये,
' कुशल. तो है ”. चन्द्रसिंद को ठिकाने पहुंचा दिया ? *
7 दारोग़रा- महाराज के पुण्य परतापसे सब कुशठ हे, कुंवर
:चन्द्रसिइ आज शाम को ने० ७ वाली गुफासे ” पुतलीमदइलू ” में
केद कर. लिय गये हैं और उनका ऐय्यार दीरासिंद भी “ मायाकूप
मूं ” कदकर स्वयं ” पुतरीमहल ” में आ फँसा दे । मगर कुंचर-
चन्द्रसिद को स० ९५ की कोठरीमें वन्द करतेदी मेरे क्र एक
घड़ाकेकी -आवाज हुई. और साथद्दी कमरा दिलने छगां कुछ
देर वाद..एकाएक उसकी पूरव ओर की दीवार एक गड़गड़ाइटकी
-आवाज़क साथ वाचत फट गई 1 उसके अन्दर एक बड़ा आछ-
मारी दिखाई दी, देखते. देखते उस आछकमारीके दोनो दरवाज़े
घड़से खर. गये ! साथ ही. उसमें से दो खूबमरत, परतखियाँ
७
निकल कर चड़ाद। सुराछा आवाज़ में शोकजनक गीत गाने लगा !
जिते मैं विछकुछ न. समझ. सका मगर . उनकी आकृतिसे इतना
मुझे ज़रूर माठ़म हुआ, कि वह अपने गीतोंपिं शोक प्रगट कर रही
शा ६,
थीं। करीब ९० पिनट तक वह गाती रहीं। फिर एकाएक उछछ कर -
दोनो पुतढियाँ आछपारी में घुस गई ! एकने अपने मुदसे एक भा
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जपन्नका. लिपटा हुआ टुकड़ा निकर 'कर वाइर फेंक दिया! आछं-
मारीकें दोनों :-दरवाज़े - घड़े से वन्द हो : गयें फटी हुई दीवार
ज्यों की तपों जुट गई ! मैं एक दम स्रप्नावस्थाकी तरह भोचकसा'-
करसी पर दैठा:रह गया । मेरी जिर्दर्गीमें ऐसा कभी नहीं हुआ था
करीब आध घण्टे तक में उसी अवस्थामें वेठा रहा । : फिर क्रमशां:
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