रसातल यात्रा | Rasatal Yatra

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Rasatal Yatra by गिरिजाकुमार घोष - Girija Kumar Ghosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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हर तिकले वे श्पने यन्त्र से काम नहीं ले सकते थे श्र उसके चिना तारापुर की नाली में घुसना भी सस्सव न था | द्नि मर इसी भाँति बीत गया। एक श्ाध बेर कुछ पानी भी बरस गया । हंसा ने टिघले हुए ातु श्रौर पत्थरों की चौड़ी चौड़ी पपड़ियाँ छुन कर एक चट्टान को नीचे कुछ छाया सी चना ली । यह काम उसने बड़ी वुद्धिमानी का किया व्योकि रात के साथ साथ ज़ोर से पानी चरसने लगा हम तीसें हंसा की छाया के नीचे वेठे रहे । पानी के साथ साथ चफं भी सिरने लगा। सारी रात हम लोगों ने वड़े दुम्ख से काटी । फिर स्ेरां हुआ परन्तु चादल न हटे । मास्टर साहव बाघ की नाई युररने लगे । उनकी ढुदंशा का कुछ ठिकाना त रहा । पर बेवसी थी वे कर ही. क्या सकते थे ? तीसरे दिन भी सूर्य न निकला । परन्तु चोथे दिन ऋतु वदल गयी वादल हृट गये. ज्वालामुखी के गड्ढे सें सूय की किरण भर गयीं । हर एक पहाड़ हर एक चट्टान की छाया देख पड़ने लगी । साथ ही साथ ऊपरवाले पब॑त के शिखर की छाया धूप के साथ साथ एक लकीर की माँति नाली के मुख पर चक्कर काट कर घूमने लगी । मास्टर साहब झपना यन्त्र हाथ में लेकर उस छाया की लकीर के पीछें पीछे घूमने लगे । दोपहर को वह लकीर नाली के ठीक वीचोबीच से आ- गयी | सास्टर सादय योल उठे वस बस टीक है । रजन चलो अब देर मत करो ।? हम लोग सब तैयार हो गये ।




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