चतुर्भाणी | Chaturbhani

55/10 Ratings. 1 Review(s) अपना Review जोड़ें |
Book Image : चतुर्भाणी - Chaturbhani

लेखकों के बारे में अधिक जानकारी :

डॉ. मोतीचन्द्र - Dr. Moti Chandra

No Information available about डॉ. मोतीचन्द्र - Dr. Moti Chandra

Add Infomation About. Dr. Moti Chandra

श्री वासुदेवशरण अग्रवाल - Shri Vasudevsharan Agarwal

No Information available about श्री वासुदेवशरण अग्रवाल - Shri Vasudevsharan Agarwal

Add Infomation AboutShri Vasudevsharan Agarwal

पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

(Click to expand)
भूमिका संस्कृत-साहिस्य में प्राचीन नाटक श्पनी सुंदर भाषा; चरित्रचित्रण॒ तथा ठदात श्टज्नारिक भावों के लिए, प्रसिद्ध हैं; पर जहाँ तक जन-जीवन के प्रद्शन का संबंध है संस्कृत- नाटकों की सामग्री सीमित है । अधिकतर नाटक राजाश्ों की प्रेम-कहानियों पर आश्रित हैं श्ौर उनके भाव, वणन शैली श्रौर पात्र रूढ़िगत होते हैं । बट, विदूषक, चेट इत्यादि के चरिन्रचित्रण में तत्कालीन लोक-जीवन पर प्रकाश डाला जा सकता था, पर संस्कृत नाटकों में उनका चित्रण भी प्राय: रूढ़िगत हो गया । शूद्वक का मृच्छुकटिक एक ऐसा नाटक है जिसमें हम तत्कालीन लोक-जीवन की कुछ भलक पा सकते हैं । स्च्छकटिक में ब्रिट, चेर, जुश्नाड़ी, चोर, वारखनिता, तत्कालीन श्रदालत इस्यादि का बड़ा हो जीता-जागता चित्र खींचा गया है । उसके जीते-जागते पात्रों को देख कर हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि संसार में किसी भी उन्नत समाज की तरह भारतीय समाज में भी वे दी बुराइयाँ थीं जिनका नाम सुनते ही हम श्राज नाक भी सिकोड़ने लगते हैं । टॉंग के सबसे बड़े शत्रु परिदास, श्रावाजाकशी श्रौर तक है । तक में कारण देकर बहस की श्रावश्यकता पड़ती है पर परिह्दास तो बुद्धि के तीखेपन की ही देन है 7 तक की मार का तो जवात्र हो सकता है पर हँसी की मार तो सीधी बेठती है श्रौर चठुर लोग इसका बुरा नहीं मानते । श्रभाग्यक्श संस्कृत में नोक-भॉक की दिल्लगियों और फ्तियों का सादित्य सीमित है । इसमें संदेह नहीं कि ईसा की प्राथमिक सदियों में अथवा उसके पहले भी ऐसे लेखक रहे होंगे जिन्होंने श्रपने समय के समाज का चित्र खींचते हुए; सामाजिक कुरीतियों श्रौर टोगों की हँसी उड़ाई द्दोगी पर कालान्तर में ऐस्ग साहित्य इलकेपन के देप से बच न सका । फिर भी संस्कृत साहित्य में ऐसे ग्रन्थ बच गए है जिनसे समाज की दूषित शवस्था पर फत्रतियाँ कसने वालों का पता चलता है । दशकुमारचरित के लेखक दंडी तो इसमें सिद्धहस्त थे । देवता; लालची, मुरगे लड़ानेवाले ज्राह्मणु, दोंगी साधु, बने हुए दिगम्बर शऔर बीद्ध-भिन्तु, चार, येश्याएँ , जुश्नाड़ी इत्यादि काई भी दंडी की पैनी श्रॉखों से नहीं बच पाया है। कथा-सारिस्सागर में भी बहुत सी ऐसी कहानियाँ है जिनसे हँसी के माध्यम से तत्कालीन समाज-व्यवस्था, पाखंडियों, धू्तों श्रौर बेवकूफों की हँसी उड़ाई गई है । क्लेमेन्द् (११वीं सदी ) तो इस तरह के साहित्य के श्राचा्य ही हैं। समयमाठृका में उन्होंने वेश्याश्मों श्र वेश का बड़ा हो जीवित खाका खींचकर उनके फेर में फँसने बालों की ख़िल्ली उड़ाई है। दपंदलन में कुल, घन, मान, विद्या, रूप, शौय, दान, श्और तप के दोगों का मजाक उड़ाया गया है श्रौर देवताओं तक को नहीं छोड़ा गया है । कला-बिलास में दंगी, ल्ञालची, बनियों, वैद्यो, वेश्याद्ों, ज्योतिषियों इत्यादि की हँसी उड़ाई गई है। कला-विलास में जो कहानियाँ दी गई हैं वे तो हँसी से भरी पड़ी हैं । देशे!पदेश में कंजूस, विंट, छुटनी, गुरु इत्यादि के दंभों की हँसी है तथा नम्मंमाला में कायस्थों की खबर ली गई




User Reviews

No Reviews | Add Yours...

Only Logged in Users Can Post Reviews, Login Now