मध्य कालीन संत - साहित्य | Madhyakalin Sant Sahitya

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सतना ता इतिहास की उपेक्तित दिशा के श्रथ्ययन ने सतो की चेतना को स्पष्ट भूमिका दी जिसके श्राघार पर ही इनकी नैतिक घारणाओ श्रौर सास्कृत चेतना का श्रव्ययन सभव हुश्ा | जीवन की गति मूलक प्रक्रिया का व्यापक प्रभाव सतो की चिन्ता-धारा पर पढ़ा हूं । सत रूढ भर्थों में दाशंलिक नही थे श्रत उन्हें शास्त्रीय दर्शन की दृष्टि से देखना उचित नहीं 1 बिचार-घारा की परम्परा का जीवन-क्रम के साथ नूतन सासजस्य सदा होता श्राया है, एतदथ परम्परा का श्रध्ययन झपेक्तित हो गया । “चिन्ता-घारा” का पूर्वाद्ध सतो की “विभिन्न श्रास्थाश्रो का प्रामारिक उल्लेख करता है जिसके श्रभाव में श्रन्य मतों के सिद्धातो के साथ समी क्षात्मक तुलना श्रवैज्ञानिक श्रौर भ्रप्नामाणशिक हो जाती । सारग्राही मानकर सतो का उपहास कुछ विचारको ने किया है, श्रत विभिन्‍न मतो के सिद्धात्तो के साथ तुलनात्मक समीक्षा द्वारा इनके वैशिष्ट्य का श्रष्ययन करना श्रावश्यक था । दो कलाकारों की तुलना श्ननुपयुक्त तो है कितु मतवादों की तुलना स्पष्टता के लिए श्रनिवार्य । प्रेम की ब्यापकता के कारण कुछ विचारको ने इन्हें प्रच्छन्न सूफी कहा श्रथवा दूसरों ने योग-ज्ञान के कारण नाथ परम्परा की भ्रन्तिम कडी । इस काररण सतो के प्रेम-दर्शन, रददस्यात्मकता, प्रतीक-विधान श्रौर श्रानन्द- झस्वेषण का श्रव्ययन कुछ विस्तार के साथ मुझे करना पडा है । शब्दों का झव्यवस्थित प्रयोग समीक्षक की चामता श्रौर समीक्षा की कृपसत्ता है | “रहस्यवाद” की कम-से-कम पाँच घारणाएँ हैं श्रोर उनमे से किसी एक घारणा द्वारा ही सतो की रहंस्यवादिता को स्पष्टतया परिलकत नहीं किया जां सकता । “प्रतीकवाद” श्रौर प्रतीक-विधान एक नही । प्रतीको का श्रपना इतिहास होता हैं । प्रतीको के द्वारा सतो को विचार-घारा को जितना नहीं समभा जा सकता उससे श्रघिक विचार-घारा प्रतीको को स्पष्ट करती है । प्रतीक-विधान सतो के जीवन की चेतना, परिवेष्टन श्र सामाजिक एवं परम्परागत सरकार का परिसुचक हैं। इसी प्रकार सतो की ( विशेष कर कबीर की ) भाषा को श्रपश्नरश की पूर्वी-परम्परा के झ्रतुबघ में ही देखना भ्रपेक्षित है । सिद्ध-साहित्य से स्पष्ट हो जाता है कि “खा” कार- वहुलता पंजाबी की ही विशेपता नहीं। कुछ शब्दों का सातुनासिक उच्चारण तो “भोजपुरी” -प्रान्तो में झाज भी प्रचलित है जैसे “हाथ” का हाथ”, राम का “राम” शोर मान का “मान” ।. यह प्रक्रिया” “वर्ग” श्रौर “पवग” के व्णों के साथ श्रधिक होती है श्रौर तवर्गीय “न” के पूर्व तो सानुनासिक उच्चारण स्वाभाविक ही है । सतो की रचना का उद्देश्य था लोक-जीवन को सास्क़ृतिक चैतन्य से परिपर्ण करना, विचारों श्रौर भावनाशओ को क्षम रूप में प्रगट करना एव भावावेश के हर्पोल्लास- पूर्ण क्षणों को श्रनायास रूप से श्रभिव्यवत करना। न तो काव्य की रचना करने का प्रण ही उन्होंने किया था श्रोर न दिया था दार्शनिक होने का श्राश्वासन ही । उनकी कसौटी थी “राम” के साथ सम्बद्धता -- खरी कसौटी राम की लोटा टिके न कोय ] राम कसौटी सो टिके जो मरजीवा होय | १. तुलसीदास ने भी इस मानदण्ड को स्वीकार किया है -- घूमड तजइ सदज कर्झाई । श्रगर प्रसंग सुगघ बसाई ॥। मनिति भदेस वस्ठु भल्लि वरनी । राम कथा जग मंगल करनो |)- मानस, बाल० १० |




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