संत साहित्य | Sant Sahitya

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Sant Sahitya by रामचंद्र शुक्ल - Ramchandra Shukl

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[ दे... खुली 'ाँखों से इस विश्व की शोर मॉकना; मुरली के मोहक स्वर पर शल्हड़ स्गशावक का झत्यु की गोद में हँसते-हँसते छलाँग मार जाना, दीपक की लो पर शलभों .का प्रीतिपूर्वक प्राणश-विसिजन--ये सब उसी निरवयगुर्ठन-प्रक्रिया के कॉमल तंतु हैं। हमारा यह लघु जोवन अपने अनन्त 'पथ पर चलकर निरवसुण्ठन की प्रक्रिया में ही लगा रददता है । सब कुछ खोलना ही हे । प्रत्येक पल, प्रत्येक पदार्थ सें चिक दृटाने की दी क्रिया हो रद्दी है। हम सोते हैं और दमारी मु दी आँखों के भीतर भी एक संसार स्वप्न के सागर पर तिर उठाता है; हम जागते हैं और इस खुले व्यक्त रूप के भीतर से भी कोइ हमारा “अपना” हमें अपने में मिलाने के लिये घुला रहा है--और यह दृश्य-जगत्‌ उसका एक संकेत है-- एक इशारा है, एक॑ 'मौन निमन्त्रण है । यदि दम केवल शरीर ही शरीर होते तव तो कुछ वात ही न थी । हमारी इस यनने- मिटनेवाली काया के भीतर जो अमर हंस कुरेल कर रहा हे-- चही हमें शान्त नहीं वेठने देता--वही हमें यहाँ के ललचीले वाजार में विरमने नहीं देता । शरीर तो सुख-दुःख के थपेड़ों में भी इसी हंस” का शिकार वना हुआ हूँ । चह इस झामर ज्योति का वन्दी बनकर अपने भीतर को भरूख-प्यास को संद्प्ति के लिये झागे बढ़ता दही जाता है । 'हंसः परमहंस से मिले बिना रुकेगा नहीं, रुक नहीं सकता । संसार की--नहीं-नहीं, स्वगं की भी कोई सम्पदा, कोई विभूति; कोई झाकपण इस झअनियारे पंछी को लुभा नहीं सकती, वाँथ नहीं सकती, विरमा नहीं सकती । तो यदद पंछी हमें चैन नहीं लेने देगा ? यह हमें चुपचाप बेठने नहीं देगा ? खोजो और फिर खोजो, खोजते रही श्र खोजते-




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