कश्मीरी भाषा और साहित्य | Kashmiri Bhasha Aur Sahitya
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.13 MB
कुल पष्ठ :
278
श्रेणी :
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No Information available about डॉ. शिबन कृष्ण रैणा - Dr. Shiben Krishna Raina
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)घमीर का मौगोलिक परिवेश बइमीर जम्मू व कइमीर प्रदेश का एक प्रभुख भाग है। पहं प्रदेश भारत के उत्तर-पश्चिम में ३२ १७ व ३६ ५८ उत्तरी भ्रक्षांग के मध्य तथा ७० १४ व ६० ३०. पूर्वी देसास्तर वे मध्य ह्थित है। इस प्रदेश वे साथ उत्तर मे चोनी-तुविस्तान रूस पामीर भादि दूं में तिव्वत पदिचिम में पाकिस्तान व अफगानिस्तान तथा दक्षिण मे पजाद व द्माचल की सीमाएँं मिली हैं । इस प्रदेश वो बुख शेवफत ८४४७१ वर्मीत है। जनसल्या रे५६०६७६ है जिसमे जम्मू छेंत्र थी जनसस्पा १४७२८४७ तया करमीर झेंत्र वी १६८८०८६ है। कइपीर-धाटी १४० विलोमीटर ल्बो ४० किलोमोटर बोड़ो तथा संमुदतल से २१३४ मीटर डी है। कइमोर शब्द को स्युत्पतति कश्मीर दाद के दाइमीर बदामीर काशमीर ध्रादि पर्यायवाची मिलने हैं । इनमें से सर्वधिक प्रधलित दाब्द बइ्मीर ही है। इस दाद की स्पृत्यत्ति के सम्बन्ध में भरने मत हैं। एमत के प्रनुसार बदमीर को कश्यप षि ने बसाया थां धर उर्हीं के नाम पर इसे कइयपपुर कहां जाता था जो बाद में विगवर वश्मीर बने गया । भाज से ठहूयों वर्ष यू यह भूखण्ड पूर्णतया जलमग्त था जिरामें जलदूसू नाम बा एक दैर्प निवास करता था। इस देय ने झसण्ड तपस्या द्वारा पितामद ब्रह्मा से तीन वरदान प्राप्त कर लिए थे--जल से ्रमरत्व भतुलनोय विक्रम तथा सायारावित वी प्राप्ति। थहू दैस्य इन घरदानों को पाकर टत्रालीन जनता को जो भाग-पाम की पटाडियों पर रहती दी स्रत करने लगा था । उस पापी के झातंक में सारा देश शगयुरय हो गया था एक चार इद्ापुष देय ने बदसीर की थातां भी । यहाँ की दुरावरथा का उन्होने शोगो से शारण पूछा । सोगों ने जसदूसू दैय बा णारा बु्ताठि सुनाया । बदयप को हुदय दयाद हो उठा + उन्होंने सुरस्त इस भूसण्ड का बरते का निदधय बर लिया । दे हरोपुर के निरट नौउस्थत में रहने लगे तथा वही पर उन्होंने एक राहर्द दर तब भहादेद थी तपस्या की महादेव कश्यप थी तपस्या मे प्रमसत हो गए तथा उन्होंने जलदूदू को भस्त बरने को प्राथना होकर कर सी । महादेव ने प्णु भोर बा वो जतदेद बा भन्ठ करने के लिए भेजा । परिप्णु और है. भारत थी भीसोलिए सभा दाब चतुमुज मामोरिया पृ ६१ १६६४ पे समत-दूराथ ११८-१२२
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