खून की होली | Khun Ki Holi

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Khun Ki Holi by सुधीन्द्र - Sudhindra

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[. . घ्ानन्दी --( श्रपने आांसु्रों को रोकतो हुईं गदू गढू कंठ से ) पिताजी ! वे नहीं आयेंगे । वे तुम सबसे रूठ गये हैं । ठम लोग उन्हें बढ़ा तँँग करते हो । वे नहीं श्रायेंगे कभी । ( फूट फूट कर रोने लगती है । ) ' झ्रशोक --नहीं श्रायेंगे कमी १ तो हमारी होली ? घ्ानन्दी--( सम्भल कर ) तू श्रभी खूत की होली गा रहा था न अशोक फिर गातो एक बार | घ्राशोक --गाउँ-( याद करता हुआ ) श्र सुखी स्वाधोन ढ॑ जो उन्हीं को रंग की होली गुलामों के लिये होली होली सदा हूं खून की होली श्यानन्दी --वुम्दारे पिताजी ऐसी ही खून की दोली खेलेंगे आज । नुम रंग की होली दी खेल लो | श्रघ्नोक --ना; माँ हम लोग तो पिताजी की तरह खून की ही होली खेलेंगे घरूण - केसे खेलते हैं खून की होली ? घ्यावन्दी--( श्ररुण के चपत लगाकर) बड़े आये खुन की होली खेलने वाले तुम झ्रभी नन्दे बच्चे हो वेया | खूत की होली तो बड़े खेलते हैं । तुम्हारा खुन होली खेलने के लिये नहीं हैं मेरे लाल । ( और अशोक को व्विपस लेती है ।) ( सुनी और चुन्नी लड़ती हुई श्राती हैं ) मुन्नी --ऊ! ऊ! ऊ! मेली मोतल ( माँ से लिपटकर ) माँ चुन्नी ने नेली मातल छोन लौ ।




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