रज्जब बानी | Rajjab Baani

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Rajjab Baani by डॉ. ब्रजलाल वर्मा - Dr. Brajlal Varma

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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_लियएएएनएएसएशसककलय कक एए फटसलमम कककन कट र 2.2 सस्मला-बददसट !-एपयसघस (९) *रज्जब 'बानी' की हस्तलिखित प्रतियों का अब लोप-सा होता जारहा है, यह हम अभी कह चुके हैं । सं० १९७५ विक्रमी में यह ग्रंथ साध सेवादास, वैद्य कृपाराम जीं, साथ रामकरण जी. के उद्योग तथा शेखावटी के सेठ शिवतारायण जी. नेमाणी के आ्धिक सहयोग से बम्बई के ज्ञानसागर. प्रेस में मुद्रित और प्रकाशित हुआ था, - किन्तु सम्पादक महोदय की भाषानभिज्ञता तथा रज्जब जी के काव्य से अपरिचंय के कारण-यह ग्रंथ आद्योपान्त कुछ और का. और ही होंगया.। शब्द वाक्य और छंद सभी श्रष्ट होगये। - इस ग्रंथ के छप्पय भाग की सुन्दर टीका (विशेषत रब्दाथ | स्वामी रामदास जी दूबल धनियाँ वालों ने की. थी, जो ग्रंथ के साथ दी गई थी । *रज्जब बानी' के रचनाकाल के सम्बन्ध में उक्त मुद्रित “रज्जब बानी” के सम्पादक ने. अपनी भूमिका भाग में लिखा है-“इस मनोहर प्रंथ की रचना संवत्‌ १६२५ वि० से संबत्‌ १६४५० वि» के भीतर हुई है ।” इस छपे हुए ग्रंथ के साथ छापेखाने, व्यवस्थापकों एवं सम्पादकों का खिलवाड़ देखकर सचमुच बड़ा क्लेश होता है । छपाई और सम्पादन में तो प्रमाद किया ही गया है, रज्जब जी के सम्बन्ध में निराधार मत भी प्रस्तुत किये गए हैं । उदाहरण के लिए 'वाणी' का रचनाकाल सं० १६२४५ से सं० १६५० के बीच का बताया गया है । प्रमाणों के आधार पर यह सिद्ध होचका है कि रज्जब जी सन १४५६७ ( सं० १६२४ बि० ) में उत्पन्न हुए थे । यदि बानी का रचनाकाल सं० १६२४ से १६४५० के बीच मान लिया जाय तो ..इसका अ्थे यह होगा कि जब रज्जब जी एक वर्ष की आयु के थे, तभी “बानी” की रचना में . प्रवृत्त हो गए थे । रचनाकाल-सम्बन्धी यह मत सवेधा असंगत तथा निराधार है। इस सम्बन्ध में पुरोहित हरिनारायण दार्मा का मत ही मान्य-है । उन्होंने “राजस्थान पत्रिका” कलकत्ता में प्रकाशित अपने 'महात्मा रज्जब जी' शीषंक लेख में लिखा है--'रज्जब जी सं० १६४४ में या उसके आस 'पास ही दादूदयाल के शिष्य आमेर में हुए थे और सं० १७४६ में रामंशरण (स्वर्गवासी) होगए। इस कारण इनकी रचनाएं सं० १६४५० से लगाकर सं० १७४० तक. होती रही. होंगी, परन्तु अधिकांश रचनाएं इनकी सं० १७२४५ तक हुई होंगी, जब तक इनकी इत्द्ियाँ यत्किचित काम करती रही होंगी ।” इसी प्रसंग में पुरोहित जी आगे कहते हैं--“अपने ' गुरु के परम्घाम- गमन पर इन्होंने छंद लिखे हैं, जिनका सं० १६६० में लिखा जाना सिद्ध है । गरीबदास जी के .. भेंट के सवैये इसके भी कई वर्ष पीछे के हैं, बायद सं० १६६४५ और १६७० के बीच के हों । हमारे पास इनकी “वाणी' के कई अंश सं० १७४१ और १७४२ तथा १७४३ के लिखे मौजूद हैं । इसीसे हम कहते हैं सं० १७४० इनकी रचना का. अन्तिम समय समझना चाहिए ।” पुरोहित _ जी का यह मत प्रमाण-पुष्ठ है । मुद्रित ग्रंथ की भूमिका का रचनाकाल-सम्बन्धी, सत मेक एवं अप्रामाणिक है । रज्जब जी के संस्कृत का विद्वान होने वाली धारणा भी. कोरी श्रास्ति है । यह ठीक है कि रज्जब जी बहुश्रत थे, सत्संगी थे, विद्वानों का साहचय उन्हें प्राप्त हुआ था; किन्तु स्वयं संस्कृत के विद्वाच्‌ थे--यह बात किसी भी प्रकार तर्कानुमोदित नहीं है। रज्जब जी का दूसरा ग्रंथ सर्वगी' है, जिसे हम उनकी संकलन-कृति मान सकते हैं। . इस ग्रंथ में १४२ अंग हैं । अंगों के शीर्षक “रज्जब बानी' की भांति ही हैं। विशेषता यह है कि. ..... एक एक अंग (विषय) पर अपनी बानी के साथ साथ कई महात्माओं की उक्तियाँ रज्जब जी ने... ...... अनुस्यूत की हैं । दादू, कबीर, कृष्णदास, हरदास सिंह (सम्भवत: यही स्वामी हरिदास निरंजनी हैं) [क त् नामदेव, महमूद, जनगोपाल, परमानन्द, सूरदास, अहमद, बखना, मुकुन्द, नानक, गोरख, बाजिन्द




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