लालिमा | Lalima

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प्रफुल्लचंद्र ओझा - Prafulchandra Ojha

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भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwati Prasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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'हघ [ शालिमा के सहारे गद्दे पर लेट रहे । सामने घड़ी टिक-टिककर रही थी । पहले तो बे घड़ी की गति की आर एकटक दृष्टि लगाये रहे, फिर यकायक कलुश्रा के जीवन पर विचार करने लगे । बेचारा सबेर से लेकर रात के नौ-दस बजे तक काम करता है श्रौर पाता कया है गिनती के ग्यारद रुपये । रसके घर में उसकी स्त्री है, बुढ़ी मां है। तीन प्राणियों का जीवन इन्हीं ग्यारह रुपयों पर निर्भर रहता है ! वह खुद तो मेरे यहाँ प्रायः बचा-खुचा खाना सत्र लेता है । इस तरह उसे कभी-कभी अच्छा खाना मिल भी जाता है, पर उसकी घरवाली तथा उसकी माँ भला क्या खातीं होगी ' जौ-चने की रोटी, श्वरदर की दाल, दो-एक लाल मिरचे व्ौर बहुत हुभ्ना तो घाज़ार का बनावटी थी ! बस यढ़ी उनका भोजन. है! और कपड़े-कपड़े भी श्रच्छी तरह वे क्‍या पाती होंगी : मेरे घर के फटे-पुराने कपड़ों से दो उनका निर्वाह होता दे! हाय ! बेचारा गरीब नौकर ! और मैंने उस पर द्ाथ उठाया !! इस तरह पदले कलुआ के पीटकर, फिर उसकी ग्ररीवी का. “विचार करते-करते दीनानाथ सो गाय । कलुद्ना भाँसू पॉछ-पाँछकर साबुन उठा लाया छोर _स्वूब मल-मलरूर अपन दाथ घाने लगा । तमांख् पीने के कारण 'चसके हाथ से दी तो. बदबू झायी थी और इसीलिए उस पर मार पड़ी थी : कलु्ा, ऐसा जान पढ़ता था कि, सारा अपराध.




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