कला की दृष्टि | Kalaa Ki Drishti

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Kalaa Ki Drishti by भगवतीप्रसाद वाजपेयी - Bhagwati Prasad Vajpeyi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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कला की दृष्टि ५ उपयोक्त बात कहकर बह कुर्ती छोड़ उठ खड़ा हुआ। विष्णु ने पूछा क्यों, कहाँ चले ? ओर विपिन आगे बढ़कर छज्जे पर पड़ी आराम कुर्सी पर आ बेठा | बेठा क्‍या, बल्कि लेट गया, दोनों पटरों पर पैर फेलाकर । विनोद ने कहा--आजञज इनका मृडः इदं बदला हुआ देख पडता है । विष्णु बोला--तो भी कुछ सुना डालो इसी बात पर, विपिन बाबू । लेकिन भई, कोई ऐसी बात सुनाना, जिसका सम्बन्ध तुम्हारे जीवन से हो, उसके निर्माण से । विनोद ने सिगरेट का उन्धा च्रोर दियासलाई का बक्स इसी क्षण उसके सामने कर दिया। विपिन चुपचाप रहा, ज़रा भो न हिला-डुला । विनोद तब बोल उठा--क्ष्यों सुलगाते क्‍यों नहीं ! विष्णु भी कहने लगा--हाँ जल्लाओ, जलाओ यार ! तब विपिन विनोद की ओर एकटक देखता रहू गया । बड़ी-बड़ी उसकी आँखें पूरी-को-पूरी खुल गईं, एक निःश्वास लेकर उसने डब्बे से एक सिगरेट निक्राल लो ओर पटरे पर बार-बार उसे हलके से ठोक्रते हुए वह कहने लगा-जीवन-भर सुलगता ही तो रहा हूँ विनोद, जल कभी नहीं सकरा । फेवल घुआँ ही निःसत हुआ है मुभसे ।--जलने का अवसर तो अब आया है। अवाक्‌ शरोर विस्मयाकुल होकर, विनोद ओर विष्णु इसे देखते रह गये ।




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