जहाज का पंछी | Jahaj Ka Panchhi

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Jahaj Ka Panchhi by इलाचन्द्र जोशी - Elachandra Joshi

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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. है मेरी आँखों के आगे निराले सुनहरे ख् कैसे रूप में भासमान होने लगा मनुष्य के प्रति मनुष्य की सहज समवेदना और सहानुभूति के अ भर त पर से मेरा जो विश्वास उठने लगा था वह सामूहिक पीड़ा के उस वातावरण में फिर से मेरे मन में नये रूपमें जमने छगा । मुझे लगा कि जितने भी मरीज उस वाः में भरती हुए हैं वे सब अपनी-अपनी पीड़ा से विकछ दोने पर भी एक-दूसरे का हाल जानने और अपने-अपने अनुभवों का दृशन्त देकर परस्पर दिलासे की बातें कहने के उत्सुक हैं । विशेषकर वे रोगी जो अपनी पीड़ा की प्रारम्मिक परिस्थितियों में कुछ उबर चुके थे अपने-अपने पड़ोसी रोगियों के मन के तारों को छूने उनके हृदय के अधिक-से-अधिक निकट आने के ठिए बहुत व्याकुल दिस्वा ई देते थे । किन्हीं भी दो पड़ोसी रोगियों का पारस्परिक स्नेहाछाप मेरे मन को एक पूर्व सुखद अनुभूति से गुदगुदा देता था । जब कोई नर्स आकर किसी मरीज को दवा देती हुई अपनी सारी व्यस्तता के बीच में उससे एक भी स्नेह-भरा शब्द बोरू देती मेरा हृदय गद्गदू हो उठता था । जब कोई डॉक्टर किस निराद रोगी को तनिक भी आश्वासन देता तब मेरा अन्तर व्यक्तिगत कृतशता की-सी अनुभूति से पुर्ला दो उठता । किसी अस्पताल में भरती होने का वह मेरे लिए पहला ही अवसर नहीं था। मैं जानता था कि इस देदा के बड़े-से-बड़े ओर अच्छे-से-अच्छे अस्पतालों में भी ऐसे र नसों की संख्या कुछ कम नददीं रहती जो किसी मानवीय भावना से प्रेरित होकर नहीं बल्कि कवर आफीशत् ड्यूटी बजाने के उद्देश्य से मद्यीन की तरह मरीजों को देखते हैं और उनके प्रति मथशीन की तरह ही रूखा उदासीन व्यवहार दिखाते हैं । किसी सरकारी दफ्तर कै | पाबन्दी के अतिरिक्त परिचाढित नहीं करती । पर अपनी इस बार की मन गौर कानून द्वारा परिचक्ित व्यवहार की उपेक्षा जान- रखे क्षणों के स्वागत की प्रतीक्षा में र्‌इता ज मुख के किसी माव से उनके मीतर का र ग




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