सेहरे के फूल | Sehre Ke Phool

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Sehre Ke Phool by आदिल रशोद - Adil Rashod

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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सेहरे के फूल श्ठे बहुत बुरी हो गई हैं ।” यह उनकी सबसे छोटी वेटी नज्मा कह रही थी जो श्रभी सिफ़ छह साल की थी । “क्या हुम्रा था ? ताहिर ने रजिया से वसाहत चाही । रजिया ने भीगी बिल्ली बनते हुए कहा-- “ससईदा को छोटा समभ कर मैंने पढ़ने पर एक जरा-सा मार दिया था, बस, उस पर वह मुझे वुरा-भला कहने लगी श्रौर' 1” ताहिर साहिब यकवारगी श्रपनी बेटी रजिया की वात काट कर बोले-- “स्प्रौर इस पर तुम्हारी दादी श्रम्मा को गुस्सा श्रा गया होगा रो एकाएक वे श्रपने श्रागे वाली प्लेट खिसका कर वोले--“ब-खुदा, मैं तो तंग श्रा गया हूँ इस सईदा की बच्ची से ! वाप के होते हुए यह गैर की श्रौलाद न जाने कब तक मेरे सिर पर सवार रहेगी ? जैसे कि हमारी ही हवेली दुनिया-जहान का यतीमखाना बन कर रह गई हो ।” वे गर्दन भटक कर बेज़ारी से वोले--“लाहोल बिला कुव्वत दर वे श्रपनी जान से श्राजिज़ श्राते जा रहे थे । सप्न जाने यह हमारी श्रम्मीजान साहिबा को भी क्या सूभती है, जब देखो, उसी श्रभागी लौण्डिया के पीछे हंगामा ! वहित थी एक, ब्याह दी गई। श्रव श्रगर वह मर गई है तो इसमें हमारा क्या कसूर कि उसकी वेटी को भी हमीं पालें । वाप जिन्दा है उसका । मर नहीं गया ।” वे दस्तरख्वान से उठकर खड़े हो गए । “हमारी श्रम्मी जान साहिवा भी श्रच्छी-खासी मुसीबत हैं, हमारे लिए ।” वे वुदवुदाए । मरती भी नहीं है।'' “अ्राप उन्हें कुछ न कहें ।” श्रनवरी श्रपने दुपट्टे के श्राँचल से भ्रपने मगरमच्छ के भाँसू पोंछती हुई श्रपने शोहर के सामने श्राकर खड़ी हो गई ।




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