साहित्यिक जीवन के अनुभव और संस्मरण | Sahitiyk Jeevan Ka Anubhav Aur Sansmaran

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Sahitiyk Jeevan Ka Anubhav Aur Sansmaran by किशोरीदास वाजपेयी - Kishoridas Vajpayee

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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[३1 'पर वें पुस्तकें भेज दी जाएँ गी, जिन का अनुवाद कराना है। यह काम “जैन ग्रन्थ रत्ताकर' की शोर से हो गा ।” दाब्द मुझे याद नहीं, आशय. यही था । मुझे यह जान कर बड़ी प्रसन्नता हुई कि मेरी हिन्दी को साहित्य के एक. बहुत पुराने श्ौर प्रतिष्ठित लेखक-प्रकादाक ने पसन्द किया हैं। अधिक सुख इस लिए भी मिला कि यह प्रशंसा मुझे अनायास मिल गई थी--उस पुस्तक: में भाषा के बनाव-श्ुंगार पर में ने कतई ध्यान न दिया था । बोल- चाल की साधारण भाषा में हृदय की बात कह गया था । प्रेमी जी के फत्र से में ने समझा कि साधारण बोलचाल की भाषा भी पसन्द की जाती है श्रौर इस हृद तक पसन्द की जाती है । भाषा के सजाने-सँवारने में जो सिर खपांया जात। है, उस के ददें से में अपरिचित न था। वह सब झंझट भी न करने पड़े और “बढ़िया भाषा” का प्रमाणपत्र भी मिल जाए, इस से अच्छा झौर क्या ! “बिनु प्रयास लंका गढ़ जीता ।' एक बड़ी समस्या हल हो गई। भाषा का स्वरूप अपने लिए निश्चित कर लिया ।. वहीं आज तक पकड़े बैठा हूँ--चल रहा हूँ । सनातनी प्रवृत्ति में ने लिख दिया प्रेमी जी को कि वे तीनो पुस्तकें भेज दीजिए, जिन का अनुवाद आप कराना चाहते हें। मुझे और चाहिए क्या था? साहित्यिक -जीवन के प्रारम्भ में




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