भारतेंदु की विचारधारा | Bhartendu Ki Vichar Dhara
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
4.29 MB
कुल पष्ठ :
176
श्रेणी :
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No Information available about डॉ लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय - Dr. Lakshisagar Varshney
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१०)
पूर्वी और पश्चिमी दृष्टिकोण पर प्रकाश पड़ता है। वैसे भी
भारतीय इतिहास के उस संक्रांति-काल में किसी भी शिक्षित,
काल -ज्ञान-संपन्न और समभदार व्यक्ति के लिए बिल्कुल दी नवीन
या बिल्कुल दी पुरातन बनना कुछ कठिन दही नहीं था वरन अपने
,जीवन की गति को अवरुद्ध करना था। नवीन प्रभाव अह्ण
करते हुए भी 'भारतीय' बने रहने में ही उस समय सच्चा देश-
हित समझा जाता था । नवीन विचार प्रद्ण करने में भारतेंढु
की यात्राओं ने उनकी धघहुत-कुछ सहायता की । उनकी बंगाल-
यात्रा के समय वंगाल नवजीवन से स्पंदित दो रहा था, बह
विविध धार्मिक, सामाजिक, राजनीतिक 'और साहित्यिक आंदो-
लनों का केन्द्र बना हुआ था । इस टृष्टि से तत्कालीन उत्तर-पश्चिस
प्रदेश वास्तव में बंगाल से पिछड़ा हुआ था । अत्तः प्रगति के लिए
उद्योगशील बंगाल का भारतेन्दु को प्रभावित करना स्वाभाविक
ही था। राज्ञा राममोदन राय, प्रिंस द्वारिकानाथ ठाकुर, केशव-
पंद्र सेन, इंश्वरचंद्र विद्यासागर प्रश्नति नवजायूति के संदेशवाह-
ः कों के देश से वे विधवा-विवाहद, शिक्षा आदि सामाजिक एवं
घार्मिक सुधार की बातें लाए थे । चहीं वे साहित्य की अवरुद्ध
गति को उन्मुक्त होते देख आए थे। वेसे तो वे स्वयं देश की
. छ्यापक काल-गति से प्रभावित थे, किंतु इस यात्रा ने उनके
विचारों को निश्चित रूप से स्थिरता प्रदान की । अन्य योत्राओं
से भी उन्हें लोगों के भावों और विचारों तथा देश की सामान्य
दशा का ज्ञान प्राप्त करने के श्वसर-पाप्त हुए ।
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