गढ़ कुंडार | Garh Kundar

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Gadh Kundar by श्री सूर्यकान्त त्रिपाठी - Shri Suryakant Tripathi 'Nirala'

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(१४ 9 थी । उनके पतन की जिम्मेदारी उनके निज के दोषों पर कम है । चसका दायित्व उस समय के समाज पर अधिक है । लेखक को इसी कारण 'ाग्निदत्त पाडे की शरण लेनी पढ़ी । जिस तरह गढ-कुडार पर्वतों 'और वनों से परिवेष्रित बाइर की च्ष्टि से छिपा हुआ पडा है, उसी तरह उसका तत्कालीन इतिहास भी दवा हु्मा-सा है । परतु वे स्थल, बद्द समय 'और समाज 'झब भी 'अनेको के लिये 'झाकपंण रखते हैं । उपन्यास में वर्णित चरित्रो के वर्तमान सादश्य प्रकट करने का इस समय लेखक को अधिकार नहददीं, केवल छापने एक मित्र का नाम छृतज्ञता-ज्ञापन को विवशता के कारण बतलाना पडेगा । | नाम है दुजंन कुम्दार । सुल्तानपुरा ( चिरगाँव से छत्तर में २ मील ) का निवासी है । कहानी में जिन स्थानों का वर्णन किया गया | है, वे जगलों में 'ास्त-व्यस्त अवस्था में पढे हुए हैं । दुजन कुम्दार की सद्दायता से लेखक ने उनको देखा । “गढ-कुढार” का छाजुन _ फ्दार इसी दुजन का प्रति्बिब है । “गढ-कुडार” की कहानी . चसने सुनी है, उसने समसी भी है या नहीं, यह तो नहीं कददा जा सकता, परंतु उसको यदद कहते हुए सुना है, “बाबू साथ, सोरे 'चाए कोड दूँफा-ूँका भले कर हारे, पै नौन-दरामी मोरं कर हुए 7 खक की




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