जायसी और उनका पद्मावत | Jayasi And His Padmavat
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लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
31.91 MB
कुल पष्ठ :
868
श्रेणी :
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लेखक के बारे में अधिक जानकारी :
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हजारीप्रसाद द्विवेदी (19 अगस्त 1907 - 19 मई 1979) हिन्दी निबन्धकार, आलोचक और उपन्यासकार थे। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का जन्म श्रावण शुक्ल एकादशी संवत् 1964 तदनुसार 19 अगस्त 1907 ई० को उत्तर प्रदेश के बलिया जिले के 'आरत दुबे का छपरा', ओझवलिया नामक गाँव में हुआ था। इनके पिता का नाम श्री अनमोल द्विवेदी और माता का नाम श्रीमती ज्योतिष्मती था। इनका परिवार ज्योतिष विद्या के लिए प्रसिद्ध था। इनके पिता पं॰ अनमोल द्विवेदी संस्कृत के प्रकांड पंडित थे। द्विवेदी जी के बचपन का नाम वैद्यनाथ द्विवेदी था।
द्विवेदी जी की प्रारंभिक शिक्षा गाँव के स्कूल में ही हुई। उन्होंने 1920 में वसरियापुर के मिडिल स्कूल स
पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)(१७४ )
अ्रमर संगोत रहा, प्रेम के पट पर जिसने संवेदनात्मक प्राणों के सौन्दय चित्र
चित्रित कर दिये, जो सृष्टि की रचना में प्रेम के परमाणुश्ों को पागल बनकर खोजता
रहा--जिसकी कविता का कलाकार ही प्रेम बना रहा--'प्रेम' !
पद्मावत जायसी का प्रेम महाकाव्य है । पद्मावती और रत्नसेन का रूपक रचकर
जायसी ने पार्थिव श्र श्रपाधिव सौन्दर्य की कथावस्तु रची है। यह कथावस्तु
जायस की नहीं, भारत की नहीं वरन् समस्त विश्व के हृदयस्थल की है। रत्नसेन और
पद्मावती का नाम-रूप--विद्व-पुरुष और विरव-नारी--आत्मा-परमात्मा का नाम रूप
है । लोक प्रचलित सरस-सरल में जायसी ने पद्ावत का ताजमहल बनाकर
मानों देश-देशान्तर के नेत्र-दिल का श्राह्वान किया है । केवल प्रेम ही नहीं, इस उद्देश्य की
पूत्ति के लिये पद्मावत के वर्णन में लोकपक्ष का समाहार जिस प्रकार का हुभ्रा है, उसमें
जीवन के कार्य-व्यवहारों का सीधा भाव दर्शन प्रकट हुभ्रा हैं । पद्मावत के एक चौथाई वर्णन
इसी भाँति के हैं । राजसी जीवन, सामान्य साधु जीवन, सौत जीवन, विवाह उपलक्ष, सत्य,
घँसखो री, प्रभु-भक्ति, दया, धर्म श्रादि के वर्णन पद्मावत में कहाँ नहीं मिलते ? यदि थोड़ी
देर के लिये हम एक प्रेमी श्रौर उसके प्रेम की स्थिति की श्रोर से आँख हटा लें तो पद्मावत
में जो कुछ मिलेगा वह लोक-व्यवहार, जीवन की बातें तथा उनका समाधान ! पद्मावत के
भावाथे लिखते समय मेरी सजगता सदा तुलसी के रामचरितमानस पर लगी रहकर यह
समभती रही कि पद्मावत में उसके जैसे लोकतत्व भी हैं । कितु अन्तर इतना ही लगा कि
तुलसी के ागे-पीछे, बाहर-भीतर, ऊपर-नीचे केवल श्रादकां-भक्ति, सीता-राम खड़े रहे;
भरत: उनका कलाकार प्रेम-सौन्दय की स्वच्छंद अनुभूति, जो कला की
श्रात्मा है, वैसी न दे सका जैसी प्रेम के योगी रत्नसेन आर प्रेम की प्रतिमा पद्मावती-नाग-
मती में मिलती है। यह दोनों बातें तो भ्रपनी वैयकक्तिक मान्यता की दो दिशाएँ हैं, पर
इनके आ्रादशुं और प्रेम का श्रत्तिम लक्ष एक ही है--
“सिया राम मंह सब जग जानी ।”'
(तुलसी)
भर
“हों हाँ कहत मंत सब कोई । जौ तु नाहि श्राहि सब कोई ॥””
उप जायसी)
कहना होगा कि तुलसी श्रौर जायसी--इन दोनों कवियों ही ने झ्रपना झापा
खोकर प्रभु के रूप में लीन हो जाने की झभिव्यंजना को अपने काव्य-जीवन का लक्ष माना
है। कामायनी की छायावादी, रूप शूंगार श्रौर वासना की सजीव चित्रावली पद्मावत में
अधिक स्पष्ट है । यह कला के पुर्णत्व एवं स्वच्छंदता का स्वरूप कहा जायगा ।
दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि इन तीनों महाकाव्यों में इनके रचनाकारों ने
जीवन की संकीर्ण दृष्टि को न रखते हुए उस विराट का उद्घाटन किया है जो भ्रनेक होकर
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