लोकसाहित्य के प्रतिमान | Lok Sahitya Ke Pratimaan

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Lok Sahitya Ke Pratimaan   by कुन्दनलाल उप्रेती - Kundanlal Upreti

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(5) जिसके स्रोत लॉक मानस होते हैं, वे लोक मानस ' जिनमें 'परिमार्जन ' अथवा संस्कार की चेतना काम नहीं करती होती । 'लौकिक, धार्मिक, विदवास, घ्से गाथाएँ तथा कथाएँ, लौकिक गाथाएँ तथा कथाएँ, कहावतें, पहेलियाँ आदि सभी लोक वार्ता के अंग हैं [ .. डा० भौलानाथ तिवारी * तथा क्ष्णदेव उपाध्याय3 ने लोक वार्ता शब्द को भवाचक तथा भव्याप्ति दोष के कारण ग्रहण नहीं किया । उनका कथन है कि लोक वार्ता शब्द में केवल लोक कथा या लोक चर्या का भाव बहन करने की 'क्षमता! है। अतः ढा० कुष्णदेव उपाध्याय ने 'फोक लोर' का पर्याय “लोक संस्कूति' दाब्द को स्वीकार किया है । उनके अनुसार “लोक संस्कृति” के अन्तर्गत जन जीवन से सम्बन्धित जितने आचार-विचार, विधि-निषेध, विश्वास, प्रथा, परम्परा, धर्म, सूढ़ाग्रह, अनुष्ठान भादि हैं, बे सभी आते हैं।””***** अत: 'लोक संस्कति' शब्द 'फोक लोर' के- व्यापक तथा विस्तृत अथ को प्रकाशित करने में सवंधां समय है । -ढा०' हजारी प्रमाद छ्रिवेदी ने भी लोक संस्कति” दाब्द के पक्ष में हीं अपना मत दिया है । डा० सुनीति कुमार चादुर्ज्या ने 'फोकलोर' के लिए *लोकयान' दाब्द को चुना है ।* जो हीनयान, महायामं आदि शब्दों के अंनुकरण पर है । इस शब्द से धमं का तो बोघ हो जाता है परन्तु रोति-रिवाज, अन्घ-विदवास, परम्परा एवं प्रथा का कोई बोध नहीं होता । कुछ विद्वानों ने र्लोकायन'.दाब्द की ओर भी संकेत किया है” परन्तु ये शब्द *फोकलोर' के विस्तृत एवं व्यापक अथे को श्रकाशित करने . में नितांत असमर्थ हैं । *फोकलोर' के पर्याय के रूप में हिन्दी में दो ही शब्द अधिक प्रचलित हैं । १. लोक वाताँ और २. लोक संस्कृति । “लोक संस्कृति से 'लोक॑ वार्ता शब्द और अधिक प्रचलित हैं । वास्तव में 'लोक वार्ता, शब्द में दम भी है। यह सही है कि वार्ता शब्द के कई अर्थ प्राचीन काल में प्रचलित रहे हैं जेसा कि डा० श्रीकृष्णदेव उपाध्याभ ने कहा है । परन्तु उपाध्याय जी जिस 'लोक सस्क्‌ति' दब्द को महत्त्व देते हुए उसका जो अंथे करते हैं उसी अर्थ में आज “लोक वार्ता का अ्थ रूढ़ हो गया है । वास्तव में 'लोक संस्कृति झब्द मूलतः: “'फोक कल्चर का विशुद्ध पर्याय है। १८. जज लोक साहित्य का अध्ययन --विषय प्रवेश -पृ० २ । रे. सम्मेजस पत्रिका -लोक संस्कृति विशेषांक (चेत्र झापाढ़ सं० २०१०) पृ० ४६ । है. हिन्दी साहित्य का इ्रहत्‌ इतिहास षोडश भाग)--प्र० सं० राइल जी-पृ९ ११। , है. वही पूरे ११। ५. राजस्थानी कहावतें (भाग १) २००६, भूमिका पृ० ११, कलकत्ता । ६. 'जनपद”--(खंड १) अंक १ पृ० ९६ ।




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