रत्नकरंड श्रावकाचार उग्रसेन जैन | Ratankarand Shravkachar

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Ratankarand Shravkachar by पं. उग्रसैन जैन - Pt. Agrasain Jain

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(६) स्कालिक ज्ञान श्र विज्ञान के प्रायः सब ही विषयों पर अपना अधिकार जमा न्रिया था । यद्यपि आप संस्कृत, प्राकृत, कनकी पर तामिक्ष झादि कई भाषाओं के पारंगत विद्वान्‌ थे, फिर भी सस्कृत पर श्रापका विशेष झ्नुराग श्र प्रेम था और उसमें ापने एक असाधारण योग्यता प्रास की थी | सारोॉंश यह है कि संस्कृत भाषाके सादित्य पर झापकी अटल छाप थी । दिया भारत में उच्च कोटि के संस्कृत ज्ञान को प्रोसेजन, प्रोत्साहन 'घौर प्रसारण देने वाकों में श्ापका शुभ नाम ग़ास तोर स लिया जाता हैं । ापके समग्र से संस्कृत साहित्य के इतिहास में एक ख़ास यग का झारम्भ होता है, और इसी कारण संस्कृत साहित्य के इतिहास में झापका शुभ नाम शमर है । वास्तब में, झापकी विद्या के झालोक से एक बार समस्त भारतवर्ष भालोकित हो चुका है । देश में जिस समय बौद्धादिकों का प्रबक्न तक छाया हुआ था, और लोग उनके नेरात्म्यवाद, शुन्यवाद, क्षणिक वादादि सिद्धान्तों से संत्रस्त थे इ्धवा एकान्तराते में पढ़कर झपना आत्म पतन करने के लिये विवश हो रहे थे उस समय दक्षिण भारत में उद्य होकर झापने जो छोऊ सेवा की वह बड़े ही महत्व की तथा चिरस्मरणीय है । इसी से प्रभावित होकर श्रा शुभवचन्द आचाये ने जो श्रापको भारत अपया'” लिखा वह सवधा युक्ति युक्त है। स्वामी समन्तभद यद्यपि बहुत से उत्तमोत्तम गुणों के सामी थे फिर भी कवित्व, रामकत्व, वादित्व श्र बाग्मित्व नाम के चार गुण श्राप में झसाघारण कोटि की योग्यता वाले थे ये चारों ही शक्तियां आप में ख़ास सौर से विकास को प्राप्त हुई थीं श्र इनके कारण आपका निर्मक्ष यश दूर २ तक चारों घोर फेल गया था । स्वामी के आगे बड़े २ प्रतिप्ती सिद्धांतों का कुछ भी गौरव नह्दीं रददा था । शोर न उनके प्रतिपादक प्रतिवादीजन ऊंचा मुख करके ही सामने खड़े हो सकते थे । उनका वादच्ेत्र संकुचित नहीं था । उन्होंने केवल उसी प्रांत में, जिसमें आपका जन्म हुआ था, अपनों वाद दुस्दुभी नहीं बजाई बल्कि उनकी वाद पमीछि कोगों के थज्ञाबन भाव को दूर करके उन्हें




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