श्री उड़िया बाबाजी के उपदेश | Shri Udiya Baba Ji Ke Updesh

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Shri Udiya Baba Ji Ke Updesh by स्वामी अखण्डानन्द - Swami Akhandanandस्वामी सनातनदेव - Swami Sanatanadev

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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७ ाप घरटों मूर्चिडित रहे है । छाप श्रष्ययन समाप्त करके घर लौटे तो सभी को बड़ी प्रसन्नता हुई । ्ाप भी अपनी पदक चृत्ति करने लगे । इस प्रकार जब कुछ समय निकल गया तो एक बार उस देश में बढ़ा भयझूर दुर्भिक्ष पड़ा । इस अवस्था में लोगों को ८ भूख से मरते श्औौर इघर-उघर भटकते देखकर छापको बहुत दुःख हुमा शौर झाप उनके दुःख दूर करने का उपाय सोचने लगे | इतना द्रव्य तो पास में था नददीं जो सभी की बुभुक्तारिनि को शान्त कर सकें । झात छापने कोई ऐसा छनुष्ठान करने का निश्चय किया जिससे द्रोपदी की बटलोद्दी क के समान कोई पात्र या रसायन प्राप्त किया जा सके । छन्त में चैत्र शु० ४ सं० १६५१ की रात्रि झायी । उस समय धाप किसी से बिना कुछ कहे धघोती लोटा श्औौर ग्यारद रुपये लेकर शात्त रक्षण के साधन की शोध में घर से निकल पड़े । मन्त्रसिद्धि के लिये छापको कामाक्षा गोहपस्म -सबसे छाच्छा स्थान जान पड़ा । झत कुछ दिन कलकत्ता और गोथ्यालन्दो में ठददरकर छाप गोहाटी पहुँचे । झाब ्यापके पास केवल ढाई रुपया बचा था । उस समय झनुप्ठान करने के लिये ही वहाँ एक बंगाली तान्त्रिक भी ाये हुए थे | उनसे शापका प्रेम होगया श्औौर उनकी दी सलाह से बट दिया । अनुष्ठान सुचारू रूप से चलने लगा । उसमें छुछ सफ- लता के चिह्न भी प्रतीत हुए । कई बार स्वप्न में भगवतीका दशंन हुग्मा । जप के समय वसिछ्टादि नित्यसिद्धों के दुशन होते थे । # वनवास के समय सूयें ने. द्रौपदी को एक ऐसी बटलोही थ थी जिसके द्वारा श्रन्न सिद्ध करके बाँटने पर वह तब तक समाप्त नहीं होता था जब तक द्रौपदी स्वयं भोजन न करे । उस वटलोह्ी के प्रभाव से द्वौप्रदी नित्यप्रति सहस्रो झ्रतिथियों का सत्कार किया करती थी ।




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