वीर काव्य | Veer Kavya

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उदयनारायण तिवारी - Udaynarayan Tiwari

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पं. भगीरथ प्रसाद - Bhagirath Prasad

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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(७) यहाँ “रख का अत्तुभव” इस बाक्यखण्ड का विश्लेपण भी आवश्यक है । अनुभव. पूर्वसिद्ध वस्ठु का ही होता है । अजुभव शब्द का झर्थ ही है 'पीछे से उत्पन्न । किन्तु रस के सम्बन्ध मे “अनुभव” शब्द का अर्थ यह नहीं होगा; क्योंकि वह पू्वेसिद्ध नहीं है । यहाँ अनुभव से आस्वाद सात्र ही असिप्रेत है । रसाजुभूति के सम्बन्ध मे एक बात और जान लेनी आव- श्यक है । बाते यह है कि रस के अनुभव के समय सजुष्य का सन राजस आर तामस भावों से मुक्त होकर सात्विक भावों से पूर्णतया लीन हो जाता है। इसी कारण इस अवस्था में मनुप्य अलौकिक आनन्द का अजुभव करता है। कभी कभी इस सम्बन्ध मे लोगो के मन में यह आशंका उठती है कि जब रस आनन्दमय्‌ है तो करुण, वॉमित्से आदि, को रस कहना उपयुक्त न होगा, क्योकि ये तो दुःखमय होते हैं। इस श्र का समाघान करते हुए साहित्य-दपंण-कार ने लिखा है कि करुणा, झदि.रसो मे भी परम, आनन्द. होता है. किन्तु, उसमें केवल सहदयों का अनुभव ही प्रमाण है 1 तात्पर्य यह है कि करुणःरस में भी, सहदय;, आनन्द का हैं अलुभव करते है। यदि ऐसा न होता तो मनुष्य कारुखणिक काव्यों को कभी भी न पढ़ता और न इस प्रकार के काव्यों तथा नाटकों की साहित्य सें रचना ही होती | घूडकसणादावपि रसे जायते यत्पर” सुखम्‌ । सचेत तामनुमव: प्रमाणं तन्न केवलस्‌ ।४। परि० ह संस्कृत के प्रसिद्ध नाटककार भवभूति ने “'एको रसः करण एव” लिखकर 'करुण रस' को ही प्रधान माना है । भवभूति के 'उत्तर -रामचरित' में बरुण रख दी प्रधान है । इसके श्रतिरिक्त ्रीक तथा अंग्रज़ी में भी अनेक दुखान्त नाटकों की रचना हुई है । कि जब, विनय अस्थ जिककि हि




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