स्वतन्त्रता की ओर | Swatantrata Ki Aur

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“इतना रूप है” “पलुष्य-सलुष्य में इतना भेद क्यों ? एक सोटर में चढ़ कर दूसरे की शोर ताकने से भी लजित होता दै और दुसरा सदेच प्रथ्वी पर धूल में भरा हुआ खड़ा रहकर मोटर स्थित देवता की ओर ताकना ही जीवन का 'वरम उद्देश्य समभाता है। यह सष्रि का घोरतंम अन्याय नहीं है कया ?”” उसने कहा । “पकिन्तु, समाज की श्ऑला व्यवस्थित रखने के लिये यह 'झावश्यक नहीं दे कया कि एक मोटर बनाये 'और दूसरा उस पर बेठे। यदि दोनों ही बनायेंगे तो बेठेगा कौन ? श्मौर यदि दोनों ही बैठने लगे बनायेगा कौन ? किन्तु बनाने वाले में निर्माता के हिए उचित गौरव तथा उपभोग करने लाले के मन में लिरथेक 'अभिमान नहीं होना चाहिये ।” “किन्तु मोटर की 'यावश्यकता ही कया है ?”? मोटर की 'झावश्यकता न सद्दी । फिर भी 'अधिकारी- भेद तो रहेगा ही। भाई, इमारी बो-व्यवस्था मूखों का खेल तो नहीं थी ?”? 'हुश, जब देखो पुराना पचड़ा ले बैठते हो । झरे; तुम कालेज में आये ही क्यों”? 'मजे की जमींदारी दै। बेठकर घर ही' गरीबों का गला काटे, खूत 'चूसते, मौज करते, यों आकर . व्यथे ही धन 'शर समंय न कर रहे हो ।” । -. “छारे भाई, 'अंपने 'रीति-रिवाज 'छोड़कर किसके रीतिन




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