प्रच्छन महासमर | Prichann Mahasamer

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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“वे लोग द्वैतवन में हवैत सरोवर के निकट, कहीं अपने दिन व्यतीत कर रहे हैं ।” उसने अत्यत तटस्थ भाव से कहा, “क्यों ? क्या तुम उनसे मिलना चाहती हो, काशिका ?” “नहीं ! नहीं !! ऐसी तो कोई बात नहीं है।” काशिका शीघ्रता से बोली, “आपने उनकी चर्चा की तो ध्यान आ गया ...!” “हाँ। वैसे भी आजकल उनसे मिलने कौन जाता है।” शकुनि बोला, “बेचारों के पास अपने खाने के लिए तो अन्न तक नहीं है, अतिथियों का सत्कार कैसे करेगे ।” काशिका के मन में सागर के प्रबलतम ज्वार के समान, एक तीव्र आकांक्षा उठी कि वह अपनी उस जेठानी की दुर्दशा के विषय मे कुछ और सुने, जो इंद्रप्रस्थ के राजसूय यज्ञ में महारानी थी, और द्यूत क्रीडा के समय सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अतिथि |... उसने अपने चेहरे पर अवसाद का आवरण डाल लिया और सहानुभूति प्रकट करती हुई बोली, “अच्छा, ऐसी दुर्दशा है उनकी ? क्या सचमुच उनके पास भोजन और वस्त्र भी नहीं हैं ? एक भी दासी नहीं है, महारानी के पास ?” “नहीं । दासी तो कदाचित्‌ कोई नहीं है; किंतु उनके कुछ स्वामिभक्त,पूर्व सेवक, सपरिवार उनके निकट रहते हैं; और उनकी सेवा करते हैं ।” शकूनि बोला, “वैसे पांडव वन में कुटिया बनाकर रहते हैं; वल्कल पहनते हैं; और वन के कंद मूल, अथवा आखेट से प्राप्त भोजन करते हैं। बस, जैसे साधारण अरण्यवासी वनों में रहते हैं ।” काशिका के लिए अपनी प्रसन्नता को अव्यक्त रखना जैसे संसार की कठोरतम तपस्या थी। अपने उल्लास को किसी प्रकार अपने भीतर भींच कर बोली, “क्या पांचाली अब कौशेय साड़ियाँ नहीं पहनती ? अपनी केश सज्जा नहीं करती ? उसके पतियों को असमर्थ देखकर उसके पिता उसका भरण-पोषण नहीं करते ?” “तुम बहुत भोली हो काशिका 1” शकूनि बोला, “अपनी प्रतिज्ञा के अधान, उन्हें वल्‍्कल धारण कर वनवास करना है। यदि द्ुपद अथवा कृष्ण, उन्हें धन संपत्ति देंगे, और वे लोग उसका भोग करेंगे, तो उनकी प्रतिज्ञा भंग होगी; और उन्हें पुनः बारह वर्षों का वनवास करना पडेगा। ... और जहाँ तक पांचाली की केश सज्जा का प्रश्न है, उसने तो कभी वेणी भी नहीं बाँधी | तुम शायद भूल गई कि पांचाली ने तब तक अपने केश खुले रखने की प्रतिज्ञा की है, जब तक तह दुःशासन के रक्त से उनको स्नान नहीं करवा लेती!” “ओह। हॉ। “कोई बात नहीं पुत्रि ! तुम अपना यह स्कंधावरण सैँभालो |” शकुनि ने 20/ महासमर-6




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