वायुपुराणम | Vayoupuranam

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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€ बंजावलियों में वेदों के चामत्का रिक वर्णेनों के अधिक भंश तत्कालीन इतिहास लिखने में ग्राह्म हुआ है । दूसरे प्रकार की चंशावलियों में वैदिक आख्यानों और चमत्कारों के बहुत कम अंश ग्रहण कर व्यक्तियों के इतिहास लिखे गए हूँ। जो आगे चल कर घीरे घीरे एक में मिला दिये गए और आज हमारे लिए एक गोरखधंधा बन रहे हैं । सृष्टि प्रक्रिया में ब्रह्माण्ड और विद्व की उत्पत्ति, स्थिति भर प्रलय का वर्णन युक्ति-्युक्त ढंग से किया गया है । तर्क-और केंत्पनाओं को भी प्रश्नय प्रदान किया गया है । भवन विन्यास में तत्कालीन भूगोल का समीक्ष्यकारी वर्णन है । पाशुपतयोग, परमाश्रय विधि, योग-निरूपण आदि अध्यायों द्वारा तत्कालीन प्रचलित और ग्राह्म योग-क्रियाओं, रूढ़ियों और सिद्धियों को व्यक्त किया गया है । नाथ पंथियों द्वारा स्वीकृत योग-मार्ग का प्रकृत स्वरूप उस समय था ऐसा ज्ञात होता है। सम्भवतः वौद्ध परम्परा ने उसी को अपनाकर उसको भ्रष्ट बना दिया था जिसका परिष्कृत रूप पुनः नाथपंथ में देखने को मिला । छिपासी और सतासी अध्याय में गीतालंकार का वर्णन कर संगीतशास्त्र के स्वर, राग; पुच्छेंना आदि का सामान्य परिचय दिया गया है । छत पुराण होते हुए भी तीन अध्यायों में (६६,९७,९८) विष्णु माहात्म्य का वर्णन कर इस पुराण ने अपनी पक्षपातहदीनता का परिचय दिया है । इसी व्याज से श्रीकृष्ण चरित्र का भी वर्णन हो गया है । श्राद्ध, श्राद्ध साहात्म्य, श्राद्काल, श्राद्धीय सामग्री और विधियों का वर्णन भी किया यया है । प्राय: प्रत्येक पुराणों में श्राद्ध का वर्णन है, क्योंकि श्राद्ध हिन्दू घर्म का अनिवायंँ अंग है। इस श्राद्ध वर्णन के कतिपय अध्याय मत्स्यपुराण के श्राद्ध वर्णन से मिलते जुलते है । केवल इलोकों में थोड़ा सा परिवतंन किया गया है। आचार, आश्रम और वर्ण व्यवस्था का भी संक्षेप में वर्णन है । गयाश्राद्ध महिमा प्रत्थमव्य और ग्रत्थान्त में दो वार दी गई है। राजवंश वर्णन अधिक प्रामाणिक है केवल निन्यानवे अब्याय अधिक लम्बा है जो कि प्रक्षिप्त जान पड़ता है । ः मत्स्यपुराण में इसके सम्पूर्ण इलोकों की संख्या चौबीस हजार कहीं गई है परन्तु इसके एक सौ बारह अध्यायों की इलोक गणना में नव कम ग्यारह हजार है । अतः मत्स्थ पुराण के अचुसार तेरह हजार और इस पुराण के अनुसार बारह हजार इलोकों का पता नहीं चलता । इसके चौथे अध्याय में जहाँ पुराणों की संख्या या नामावली दी गई है वहाँ “एवमष्टादशोक्‍्तानि पुराणानि बृहन्ति' च । पुराणेष्वेष्‌ वहुवों धर्मास्ते निरूपिता:” (० १०४ इलोक ११) अष्टादश पुराण तो कहा गया परन्तु मणना में सोलह ही होते है । अतः जान पड़ता है कि बीच में दो दलोक छूट गए हैं जिनमें दो पुराणों का उल्लेख रहा होगा । यहाँ यह विचारणीय है कि एक सौ चार अध्याय में ग्रस्थ समाप्त सा जान पड़ता है, क्योंकि उसमें ग्रस्थ माहात्म्य दिखा कर उपसंहार किया गया है। उसके बाद के गया-माहात्म्य के आठ अध्याय अलग से जोड़े गये-से जान पड़ते है । इच आठ अध्यायों की मक्षिप्त कहा जाता है क्योंकि वीच में भी गया का माहात्म्य लिखा गया है । ' भौगोलिक और ऐतिहासिक तथ्य ः थ प्रत्येक पुराणों में सर“ का वर्णन किया गया है । इस प्रसंग में पृथ्वी; ग्रहों, उपग्रहों, नक्षत्र भीर ब्रह्माण्ड नर्माण का जो क्रम है वह प्राय: सम्पूर्ण पुराणों में एक सी है । सप्तद्वीया भर सप्त समुद्र पृथ्वी का वर्णन भी सब में पाया जाता है । द्वीपान्तर्गत वर्पों का वर्णन, उनकी सीमा भौर चिंस्तार प्रमाण के विषय में यही कह्ठा




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