संस्कृत साहित्य का इतिहास [ प्रथम भाग ] | Sanskrit Sahitya Ka Itihas [Part 1]
लेखक :
Book Language
हिंदी | Hindi
पुस्तक का साइज :
3.73 MB
कुल पष्ठ :
225
श्रेणी :
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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश
(Click to expand)० सस्कृत-साहित्य का इतिहास
'दर्शयन्ति शरन्य- पुलिनानि शनै: दानै: ।
नवसज्ुमसब्रीडा जघनानीव योपित. ॥*
रूपक--रात्रि में अपने प्रियतमो द्वारा मुक्त रमणियोँ प्रात काल मे पैसे
न्द गमन करती हैं उसी प्रकार मंछलियों-रूपी मेखला वांी नदी-रूपी
वघुओ की गप्ति शंरत्काछ मे मर्द हो जाती है--
'मीनोपसन्दरशितमेखलाना नदीवधूना गतयोध्द्य मन्दा: !
कास्तोपमुक्तालस गामिनी ना प्रभातकालेब्विव कामिनी नाम् ॥'
समासोव्ति--जलवार का सौन्दयं निम्न उदाहरण में देखिए--
चड्चचन्द्रकरस्पशंहर्षो नमीलिततारका 1
अनुरागवती सन्च्या जहाति हवयमम्बरमू ॥”
उ्प्रेा-मेघ ही जिनके काले मूगचमं हो, जलधारायें ही जिनके
यज्ञोपवीत हो, वायु के आघात के कारण गुफाओ से उत्पन्न होने वाली
ध्वनि ही जिनके रटने का शब्द हो ऐसे परत अध्ययनशील ब्रह्मचारियो की
भाँति धोभित हो रहे हैं ।
सेघज्ञष्णजिनघरा. घारायज्ञोपवीतिन: ।
मर्तापुरितगुहा प्राघीता इव पवता ॥' की
प्रतीप--हे लक््मण ! ये कमलपुप्प की पखुडियाँ सीता के नेत्रो के
समान हैं भौर वृश्नो मे से होकर आयी हुई वायु, जो बमलकिजहक वे श्पर्श
के कारण सुगन्धित हो गई है, सीता वे नि.श्वास के समान सुगस्घित है--
'पर्मकोशपलाशानि द्रप्टु दृष्टिहि मन्यते ।
सीताया नेनकौशास्या सददयानीति लक्ष्मण ॥*
'पथ्यकेस रस सूष्रो चूक्षान्तरविनि सृत ।
नि.इवास इव सोताया वाति वायुमंतोहर, 1
(७) प्रकृतिवर्णन--वाह्मीकि वा प्रकृतिवर्णुन स्वाभाविक एवं हुदय प्रा
है। वे प्रति वे जिसी मी पदार्थ वा हृवहू चित्र उपस्थित बर देत हैं ।
उनवा वर्णन सीये हृदय पर उतर जाता है तथा श्राता वर्शनजन्प आनन्द
में निमस्त हो जाता है । दसी सरल एवं मनोरम उक्तियाँ होती हैं सहाववि
वी। हेमन्त वी ऋतु में कुदरे वे पढने से घुधली पूर्णिमा वी ज्योटसता
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