भाषा विज्ञान कोश | Bhasha Vigyan Kosh

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१ नकल शिकटोटीटशॉडिटेएएं पक टटक एप एप औशए एएंग एटा केटकपश फट िटलिटसय गे भाविक उच्चारण नहीं है। हिन्दी पथिक दाब्द भी इसी प्रकार का है । इसका प्रकत उच्चारण न तो प--थिक है और न पथू- इक अपितु ऐसा है जिसमें थू पहले अक्ष- रका पर-गहवर और दूसरेका पूर्व-गहवर है। इस प्रकारकी दूसरी स्थिति तब आती है जब दो अक्षरोंके बीच ऐसा संयुक्त व्यंजन आ जाता है जिसके बीचसे विभाजन करनसे अथें बदल जाता है । उदाहरणाथे अंग्रेज़ीमें नाइट-रेट छाए नए और नाइट्रेट 1010 दो शब्द हैं । पहुलेमें विभाजन ट-र के बीचमें सम्भव है किन्तु दूसरेमें यदि इस प्रकार विभाजन किया गया तो इसका अर्थ दूसरा न रहकर पहला हो जायगा । ऐसी स्थितिमें ट-र उच्चारण न करके टू उच्चा- रण किया जायगा । कहना होगा कि अक्षर- मध्यग ध्वनि प्रथम अक्षरके लिए पर-गहवर और दूसरेके लिए पुव-गहवर होती है । र- चनाकी दुप्टिसि ऐसी ध्वनि या ऐसा ध्वनति- समूह दोनों अक्षरोंका अंग है । भारतकें प्रा- चीन भाषा-शास्त्रियोंने भी अक्षर-विभाजतपर विचार किया है और संस्क्ृतके शब्दोंपर थि- चार करते हुए इसके लिए स्पप्ट नियमोंका निर्धारण किया है । ऋक्प्रातिशाख्य तैतिरीय प्रातिशाख्य अथर्व प्रातिशाख्य तथा वाज- सनेयी प्रातिशाख्य इस दृष्टिसि विशेषरूपसे ददनीय हैं । यों यह स्पप्ट है कि आजकी भाँति ही उस कालसें भी इस सम्बन्ध विद्वानोंमें पूर्ण मत्तक्य नहीं था । उदाहरणार्थ स्व॒र-मध्यग व्यंजन-गुच्छको ऋषप्रातिशाख्य- के अनुसार या तो वीचसे विभाजित किया जा सकता है या पूराका पूरा परवर्ती स्वर- के साथ रखा जा सकता है। किन्तु तैत्तिरीय कुछ ऐसी ही स्थितिमें गुच्छको केवल पर- . वर्ती स्वरके साथ रखनेके पक्षमें है । सीर्ष-अक्षर-रचनामें शीर्ष या शिखर चोटी 0682 0768 या एप०16प8 का बड़ा महत्त्व है । यहीं अक्षरका मेरुदण्ड या मूल आधार है । श्रवणीयताकी दुष्टिसे जैसा कि कहा जा चुका है शीष ध्वनि आसपास- मससम्पन ससनमपसरयसरसअपयससर सससससससससररिससपमपपनप्ससस्मपससमसपस्थससकरव्थमसरससथस्यानातम्म्सतसमससररससथप्पससससससपसससवसनदममनमम्यवममधनामतवपयमसथरमयमपमस्यनसवरलसमददयनममननममनयससरपननदलदवदननननवननालवा अक्षर की गह्वर ध्यतियोंस अधिक स्पप्ट तथा प्रमुख होती है । राम का आ कील की ई तथा छोर्‌ का ओ स्पष्ट ही दीर्प है और आसपासकी गहवर ध्वनियोंसे प्रमुख स्पप्ट या मुखर है । किसी ध्वनिकी मुखरता दो बातोंपर आधारित होती है क ध्वतिकी अपनी आँतरिक मुखरता--हर ध्वनिकी अपनी आन्तरिक मुखरता होती है । प्रकृत्या ध्वनियाँ कम या अधिक मुखर होती हैं । इस आधारपर ध्वनियोंके प्रमुखत ८ वर्ग बनाये जा सकते हैं १ प्‌ तू टू कू आदि अघोप स्पर्य तथा फ़ स्‌ ह. आदि अघोप संघर्पी । २ व द ड ग व ज़ हु आदि प्रथमक्ते घोप रूप ३ म्‌ न ड ण्‌ आदि नासिक्य व्यंजन तथा पाइिवक लू एवं लू । ४ लंठित र। ५ उ इ। ६ ओ ए। ७ आऑ एऐ। ८ आ। इनमें प्रथम वर्ग सबसे कम मुखर है और बादके वर्ग क्रम- से अधिक मुखर हैँ । अन्तिम आ मुखरतम है। इनमें शु आदि कुछ ध्वनियोंकी मुखर- ताके विषय में मत-विभिन्नता भी है ख ध्वनियोंको सुखर बनानेवालें अन्य बाहय तरव -जैसे बलाघात इवास-बल तथा उच्चा- रण-दृढ़ता सुर था मात्रा आदि । इनमें किसी एक या एकसे अधिकके योगसे ध्वनि अपेक्षाकृत अधिक मुखर हो जाती है । ब्लू- सर्फील्ड ग्रेफ़ हॉकेट हेफ़तर आदि प्राय सभी भाषा-विज्ञानविदोंने वीपेके छिए मुख- रताकों आधार माना है । डॉ० सिद्धेश्वर वर्मा केवल मुखरताको आधार माननेके पक्ष- में नहीं हूँ । वें प्रमुखता ए01007700700 को महत्वपूर्ण मानते हैं । उनके अनुसार प्र- मुखतामें मुखरता इवास-बल और मात्रा ये तीन बातें हैं । कहना न होगा कि यहाँ अ- न्तर केवल नामका है । वर्माजीका मुख रता - से आशय केवक ध्वनिकी आन्तारिक मुख- रता है जब कि ऊपर मुखरताके दो रूप करके मात्रा और इवास-बलको दूसरेमें समा- हित कर लिया गया है । इस प्रकार आन्त- रिक और बाहय कारणोंसे उत्पन्न मुखरता




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