हिंदी की तद्भव शब्दाबली | Hindi Ke Tadbhav Sabdavale

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Book Image : हिंदी की तद्भव शब्दाबली  - Hindi Ke Tadbhav Sabdavale

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पुस्तक का मशीन अनुवादित एक अंश

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१० हिन्दी की तद्भुव शब्दावली कुछ दुर्घटनाश्रों और संक्रमण-चकों में होकर भी निकलना पड़ा है । इस दी्ष- कालीन इतिहास में उस संस्कृत भाषा के श्रतिरिक्त जो सांस्कृतिक दृष्टि से वड़ी महत्त्वपूर्ण रही है, मध्यकालीन मारतीय भार्य-भाषा से सम्बन्धित प्राकृतों का भी वड़ा व्यापक महत्व रहा है क्योंकि लगभग . सौ शत्तान्दियों तक इन्होंने मी भारतीय संस्कृत की भापाशों के रूप में अपना योग दिया और साहित्यिक घार्भिक क्षेत्रों में महत्त्व प्राप्त करने के साथ- साथ इन्होंने वोलचाल की भाषाओं के रूप में मी प्रतिष्ठा प्राप्त की । यह कहना श्रनर्गल न होगा कि शुद्ध व्यावहारिक दृष्टिकोण से सध्य- कालीन मारतीय श्रायं माषाश्रों और वोलियों ने प्राचीन आय मापा की अपेक्षा व्यापक उपयोगिता सिद्ध की । यद्यपि संस्कृत ने प्राचीन श्रायं भाषा के प्रतिनिधि के रूप में श्रनेक युगों में कमी भी अपने गोरव को एकान्तेत: नष्ट नहीं होने दिया और धार्मिक मतभेदों के होते हुए भी देश में उसने ऐक्य स्थापित करने में समुचित योग दिया, फिर मी भारत के इतिहास में कुछ ऐसे युग मी श्राये जबकि सध्यकालीन मारतीय श्राय॑ ने उसका निमगरण-सा कर लिया । इसका प्रमाण श्रशोक के इतिहास प्रसिद्ध शिलालेख हैं । प्राकृत शिलालेखों झर मुद्रालेखों का महत्त्व लगभग भाठ शत्तियों तक बना रहा श्रोर इस “युग के उत्तराद्धं में प्राकृतों ने बोलचाल भौर संस्कृति की मापाभों के रूप में संस्कृत भाषा से बड़ी होड़ लगाई । होड़ लगाने वाली भाषाओं में घार्मिक प्राकृतों (पालि श्रौर अ्र्घ-मागधी ) का स्थान प्रमुख है । इन दोनों मापाओं में उस युग की सांस्कृतिक उपलब्धियों को व्यक्त करने वाला विशाल साहित्य निर्मित हुआ था । जहाँ तक सामाजिक, राजनीतिक श्रीर घारमिक इतिहास का प्रश्न है, भारत के लिए इन मापाओओं का महत्त्व प्राचीन मार्य भाषा से कहीं श्रषिक है । दूसरे शब्दों में, इन साहित्यों में संस्कृत साहित्य की श्रपेक्षा कहीं श्रघिक सांस्कृतिक और ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है । यद्यपि प्रायः यह कहा जाता है कि संस्कृत तच्वत: वैयाकरणों द्वारा उत्थापित मापा थी जिसका वर्ग विशेष के लोगों ने साहित्यिक मापा के रूप में ही नहीं, वरन्‌ वोलचाल की भाषा के रूप में मी उपयोग किया ; किन्तु इस सम्बन्ध में मतभेद भी व्यक्त किया जाने लगा है । यहां किसी विवाद में पड़ने के वजाय हम इतना स्वीकार कर सकते हूँ कि संस्कृत के संस्क्तीकरण में श्रसंरय गैयाकरणों का फ्रियात्मक योग रहा, जिसके प्रमाण हमें से लेकर बहूत बाद तक मिलते हैं । दौया- करणिक की चरमसीसा हमें पाणिनि और पतंजलि कृत श्रष्ठाघ्यायी श्रौर महामाप्य में दिखाई पड़ती है; किन्तु हमें यह न भुला देना चाहिये कि संस्कृत का णुद्धीकरण प्राचीन भारतीय श्रा्य॑ बोलियों से हुस्न जो च्हग्वेद के समय से दी देश में घारावाही रूप में चली श्रा रही थीं श्रौर जो




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